सहज गीता -रामसुखदास पृ. 65

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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ग्यारहवाँ अध्याय

(विश्वरुपदर्शन योग)

हे अनन्त! हे देवेश! हे जगन्निवास! आप अक्षर स्वरूप हैं। आप सत् भी हैं, असत् भी हैं तथा सत्-असत् से परे भी जो कुछ है, वह भी आप ही हैं। आप ही संपूर्ण देवताओं के आदिदेव हैं। आप ही सदा से रहने वाले पुराण पुरुष हैं। आप ही संपूर्ण संसार के परम आधार हैं। आप ही सबको जानने वाले तथा सबके द्वारा जानने योग्य हैं। आप ही परम धाम हैं। हे अनन्तरूप! संसार के कण-कण में आप ही व्याप्त हो रहे हैं। आप ही वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चंद्रमा, दक्ष आदि प्रजापति और प्रतिमाह (परदादा) ब्रह्मा जी के भी पिता हैं। आपको हजारों बार नमस्कार हो! नमस्कार हो! और फिर भी आपको बार-बार नमस्कार हो। नमस्कार हो! हे सर्वस्वरूप! आपको आगे से भी नमस्कार हो और पीछ से भी नमस्कार हो! आपको सब ओर से नमस्कार हो!
हे अनन्त शक्तिवाले! आप असीम परामक्रम वाले हैं। आपने संपूर्ण संसार को व्याप्त कर रखा है; अतः सब कुछ आप ही हैं। हे अच्युत! आपकी ऐसी विलक्षण महिमा और स्वरूप को न जानते हुए पहले मैंने आपको सखा मानकर प्रमाद से अथवा प्रेम से बिना सोचे समझे 'हे कृष्ण! हे यादव! हे सखे!' इस प्रकार जो कुछ कहा है; और आपको बराबरी का साधारण मित्र समझकर मैंने चलते-फिरते, सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते समय अकेले अथवा सखाओं, कुटुम्बियों आदि के सामने हँसी-दिल्लगी में आपका जो अपमान किया है, हे अप्रमेयस्वरूप! उन सबके लिए मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ।
इस चराचर संसार के पिता भी आप हैं, पूजनीय भी आप हैं और गुरुओं के महान् गुरु भी आप ही हैं। हे अनन्त प्रभावशाली भगवान्! इस त्रिलोकी में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर आपसे अधिक तो हो ही कैसे सकता है! इसलिए स्तुति करने योग्य आप ईश्वर को मैं शरीर से लम्बा पड़कर प्रणाम करके प्रसन्न करना चाहता हूँ। जैसे पिता पुत्र के, मित्र मित्र के तथा पति पत्नी के अपमान को सह लेता है अर्थात् क्षमा कर देता है, ऐसे ही हे देव! आप भी मेरे द्वारा किये गये अपमान को क्षमा कर लीजिये। जिसे पहले कभी नहीं देखा, उस आश्चर्यजनक रूप को देखकर मैं हर्षित हो रहा हूँ, पर साथ ही साथ उस रूप की भयंकरता को देखकर मेरा मन भय से अत्यंत व्याकुल हो रहा है। इसलिए हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न हो जाइये और मुझे अपने उसी सौम्य देवरूप (विष्णुरूप) को पुनः दिखाइये, जिसे मैंने अभी आरंभ में देखा था। मैं आपको वैसे ही सिर पर मुकुट और हाथों मे गदा-चक्र-शंख-पद्म लिए देखना चाहता हूँ। इसलिए हे सहस्रबाहो! हे विश्वमूर्ते! आप उसी चतुर्भुज रूप से प्रकट हो जाइये।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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