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ग्यारहवाँ अध्याय
(विश्वरुपदर्शन योग)
[भगवान् ने बार-बार अर्जुन को अपना विश्वरूप देखने की आज्ञा दी, पर अर्जुन को कुछ भी दीखा नहीं। इसलिए भगवान् बोले-] परंतु तुम अपनी इन आँखों (चर्मचक्षुओं)- से मेरे दिव्य रूप को नहीं देख सकते, इसलिए मैं तुम्हें दिव्य चक्षु देता हूँ, जिससे तुम मेरी ईश्वरीय शक्ति को देख सकोगे।
[ऐसा कहकर भगवान् अर्जुन को दिव्य चक्षु देते हैं अर्थात् अर्जुन के चर्मचक्षुओं में दिव्य शक्ति प्रदान करते हैं। संजय को भी वेदव्यास जी महाराज से दिव्यदृष्टि मिली हुई थी, इसलिए अर्जुन के साथ-साथ वे भी भगवान् के विराट् रूप के दर्शन करते हैं। अब संजय उसी विराट् रूप का वर्णन धृतराष्ट्र को सुनाते हैं।]
संजय बोले- हे राजन्! अर्जुन को दिव्य दृष्टि देकर महायोगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें अपना परम ईश्वरीय विराट् रूप दिखाया। जिनके अनेक मुख तथा नेत्र हैं, अनेक तरह के अद्भुत रूप हैं, अनेक अलौकिक आभूषण हैं, हाथों में अनेक दिव्य अस्त्र-शस्त्र उठाये हुए हैं और जिनके गले में अनेक तरह की दिव्य मालाएँ हैं, जो अलौकिक वस्त्र पहने हुए हैं, जिनके ललाट तथा शरीर पर दिव्य चंदन, कुंकुम आदि लगा हुआ है, ऐसे सर्वथा आश्चर्यमय तथा सब तरफ मुखों वाले अपने अनन्त दिव्य रूप को भगवान् ने दिखाया। यदि आकाश में एक साथ हजारों सूर्यों का उदय हो जाय, तो भी उन सबका प्रकाश मिलकर उस विराट् रूप के प्रकाश की बराबरी नहीं कर सकता। अर्जुन ने देवों के देव भगवान् के शरीर के एक अंश में संपूर्ण जगत् को अनेक प्रकार के विभागों में विभक्त देखा। अर्जुन भगवान् के शरीर में जहाँ भी दृष्टि डालते हैं, वहीं उन्हें अनन्त जगत् दीखता है। जिसकी कल्पना भी नहीं की थी, ऐसा विराट् रूप देखकर अर्जुन बहुत आश्चर्यचकित हो गये और उनके शरीर में रोंगटे खड़े हो गये। वे हाथ जोड़कर और सिर झुकाकर प्रणाम करते हुए विराट् रूप भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे।
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