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दसवाँ अध्याय
(विभूति योग)
भक्तों पर भगवान् की विलक्षण कृपा की बात सुनकर अर्जुन गदगद् होकर भगवान् की स्तुति करने लगे- हे प्रभो! परम ब्रह्म (निर्गुण-निराकार), परम धाम (सगुण-निराकार) और महान् पवित्र (सगुण-साकार) आप ही हैं। सब के सब ऋषि, देवर्षि नारद, असित ऋषि, देवल ऋषि तथा महर्षि वेदव्यास जी भी आपको शाश्वत, दिव्य पुरुष आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापक कहते हैं, तथा स्वयं आप भी मुझसे ऐसा ही कहते हैं। हे केशव! मुझसे आप जो कुछ कह रहे हैं, यह सब मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवान्! आपके प्रकट होने को न तो दिव्यशक्तिवाले देवता जानते हैं और न मायाशक्ति वाले दानव ही जानते हैं। तात्पर्य है कि मनुष्य, देवता, दानव आदि कोई भी अपनी शक्ति, योग्यता, बुद्धि आदि से आपको नहीं जान सकता। हे भूतभावन (संपूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाले)! हे भूतेश (संपूर्ण प्राणियों के मालिक)! हे देवदेव (संपूर्ण देवताओं के मालिक)! हे जगत्पते (जगत् का पालन-पोषण करने वाले)! हे पुरुषोत्तम! आप स्वयं ही अपने-आपसे अपने आपको जानते हैं। इसलिए जिन विभूतियों से आप इन संपूर्ण लोकों को व्याप्त करके स्थिति हैं, उन सभी अपनी दिव्य विभूतियों को संपूर्णरूप से आप ही बता सकते हैं। हे योगिन्! हरदम सांगोपांग चिंतन करता हुआ मैं आपको कैसे जानूँ? और हे भगवान्! किन-किन रूपों में मैं आपका चिंतन करूँ? हे जनार्दन! आप अपने योग (सामर्थ्य) और विभूतियों को पुनः विस्तार से कहिये; क्योंकि आपके अमृतमय वचन सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं हो रही है।
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