सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
नौवाँ अध्याय(राज विद्याराज गुह्य योग)हे कौन्तेय! वास्तव में देखा जाय तो मेरी प्रकृति ही मुझसे सत्ता-स्फूर्ति पाकर संपूर्ण चराचर जगत् की रचना करती है। इसी कारण जगत् में विविध प्रकार से परिवर्तन हो रहा है। परंतु ‘मैं संपूर्ण प्राणियों का महान् ईश्वर हूँ’- ऐसे मेरे सर्वश्रेष्ठ स्वरूप को न जानने का कारण अविवेकी लोग मुझे एक साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवहेलना करते हैं। ऐसे अविवेकी लोग तीन तरह के स्वभाव वाले होते हैं-
हे पार्थ! जो दैवी संपत्ति वाले (सद्गुणी-सदाचारी) महात्मा भक्त हैं, वे मुझे संपूर्ण प्राणियों का आदि तथा अविनाशी समझकर अनन्य मन से मेरा ही भजन करते हैं। नित्य-निरंतर मुझमें ही लगे रहने वाले वे भक्त दृढ़ निश्चय के साथ मेरी प्राप्ति के लिए साधन करते हैं। वे भक्त कभी प्रेमपूर्वक कीर्तन करते हुए तथा कभी मुझे नमस्कार करते हुए निरंतर मेरी उपासना करते हैं। उनकी संपूर्ण क्रियाएँ केवल मेरी प्रसन्नता के लिए ही होती हैं। इनके सिवाय दूसरे ज्ञानयोगी साधक ज्ञानयज्ञ से अर्थात् विवेक पूर्वक असत् का त्याग करते हुए मेरे निर्गुण-निराकार स्वरूप की अभेद भाव से उपासना करते हैं, और दूसरे कई कर्मयोगी साधक अपने को सेवक मानकर और संसार को मेरा विराट् रूप मानकर तन-मन-धन से सबकी सेवा में लगे रहते हैं। |
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