सहज गीता -रामसुखदास पृ. 50

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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नौवाँ अध्याय

(राज विद्याराज गुह्य योग)

हे कौन्तेय! वास्तव में देखा जाय तो मेरी प्रकृति ही मुझसे सत्ता-स्फूर्ति पाकर संपूर्ण चराचर जगत् की रचना करती है। इसी कारण जगत् में विविध प्रकार से परिवर्तन हो रहा है। परंतु ‘मैं संपूर्ण प्राणियों का महान् ईश्वर हूँ’- ऐसे मेरे सर्वश्रेष्ठ स्वरूप को न जानने का कारण अविवेकी लोग मुझे एक साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवहेलना करते हैं। ऐसे अविवेकी लोग तीन तरह के स्वभाव वाले होते हैं-

  1. आसुरी- अपना ही स्वार्थ सिद्ध करने वाले
  2. राक्षसी- अपने स्वार्थ के लिए दूसरों का नाश करने वाले, और
  3. मोहिनी- बिना कारण दूसरों को कष्ट पहुँचाने वाले। ऐसे लोगों की सब कामनाएँ, सब आशाएँ, सब शुभकर्म और सब ज्ञान व्यर्थ अर्थात् नाशवान् फल देने वाले होते हैं।

हे पार्थ! जो दैवी संपत्ति वाले (सद्गुणी-सदाचारी) महात्मा भक्त हैं, वे मुझे संपूर्ण प्राणियों का आदि तथा अविनाशी समझकर अनन्य मन से मेरा ही भजन करते हैं। नित्य-निरंतर मुझमें ही लगे रहने वाले वे भक्त दृढ़ निश्चय के साथ मेरी प्राप्ति के लिए साधन करते हैं। वे भक्त कभी प्रेमपूर्वक कीर्तन करते हुए तथा कभी मुझे नमस्कार करते हुए निरंतर मेरी उपासना करते हैं। उनकी संपूर्ण क्रियाएँ केवल मेरी प्रसन्नता के लिए ही होती हैं। इनके सिवाय दूसरे ज्ञानयोगी साधक ज्ञानयज्ञ से अर्थात् विवेक पूर्वक असत् का त्याग करते हुए मेरे निर्गुण-निराकार स्वरूप की अभेद भाव से उपासना करते हैं, और दूसरे कई कर्मयोगी साधक अपने को सेवक मानकर और संसार को मेरा विराट् रूप मानकर तन-मन-धन से सबकी सेवा में लगे रहते हैं।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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