सहज गीता -रामसुखदास पृ. 47

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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आठवाँ अध्याय

(अक्षर ब्रह्म योग)

हे पार्थ! (उपर्युक्त प्रकार से निर्गुण-निराकार को प्राप्त करना सबके लिए बहुत कठिन है, पर मेरी अर्थात् ‘सगुण-साकार’ की प्राप्ति बहुत सुगम है।) जिसका मन मुझे छोड़कर कहीं नहीं जाता तथा जो नित्य-निरन्तर (अभी से लेकर मृत्यु तक और नींद खुलने से लेकर गाढ़ नींद आने तक) मेरा स्मरण करता है, उस नित्य-निरंतर मुझमें लगे हुए योगी को मैं सुलभता से प्राप्त हो जाता हूँ। परम प्रेम से युक्त होकर मुझे प्राप्त करने के बाद महात्मालोग इस दु:खों के घर तथा निरंतर परिवर्तनशील संसार में पुनः लौटकर नहीं आते। हे अर्जुन! पृथ्वी से लेकर ब्रह्मलोक तक जितने भी लोक हैं, वहाँ जाने पर जीव को पुनः लौटकर संसार में आना पड़ता है; परंतु हे कौन्तेय! मुझे प्राप्त होने पर जीव को पुनः लौटकर संसार में नहीं आना पड़ता।
सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि- इन चार युगों को एक चतुर्युगी[1] कहते हैं। ऐसी एक हजार चतुर्युगी बीतने पर ब्रह्मा का एक दिन और एक हजार चतुर्युगी बीतने पर ब्रह्मा की एक रात होती है। इस गणना के अनुसार सौ वर्ष बीतने पर (आयु पूरी होने पर) ब्रह्मा भी भगवान् में लीन हो जाते हैं। इस प्रकार काल के तत्त्व को जानने वाले मनुष्य ब्रह्मलोक तक के भोगों को नाशवान् जानकर उन्हें महत्त्व नहीं देते। संपूर्ण प्राणियों के शरीर ब्रह्मा के दिन के आरंभ में उनके सूक्ष्मशरीर से उत्पन्न होते हैं तथा ब्रह्मा की रात के आरंभ में उनके सूक्ष्मशरीर में लीन हो जाते हैं। हे पार्थ! अनादिकाल से जन्म-मरण के चक्कर में पड़े हुए वही प्राणी बार-बार ब्रह्मा के दिन में उत्पन्न तथा रात्रि में लीन होते रहते हैं।
तात्पर्य है कि जो बार-बार उत्पन्न तथा लीन होता है, वह शरीर-संसार है और जो वही रहता है, वह जीव का असली स्वरूप है। परंतु ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर से भी अत्यंत श्रेष्ठ, विलक्षण, अनादि, सत्तारूप जो परमात्मा हैं, वे संपूर्ण प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होते। उन्हीं परमात्मा को अव्यक्त, अक्षर, परमगति आदि अनेक नामों से कहा गया है। जिसे प्राप्त होने पर जीव फिर लौटकर संसार में नहीं आते, वह मेरा परमधाम है। हे पार्थ! संपूर्ण प्राणी जिसके अंतर्गत हैं और जिससे यह संपूर्ण संसार व्याप्त है, उस परम पुरुष परमात्मा को तो अनन्यभक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104
  1. सत्ययुग 17 लाख 28 हजार वर्षों का, त्रेतायुग 12 लाख 16 हजार वर्षों का, द्वापर युग 8 लाख 64 हजार वर्षों का और कलियुग 4 लाख 32 हजार वर्षों का होता है। इस प्रकार 43 लाख 20 हजार वर्षों की एक ‘चतुर्युगी’ होती है। ऐसी एक हजार चतुर्युगी अर्थात् 4 अरब 32 करोड़ वर्षों का ब्रह्मा का एक दिन तथा इतने ही वर्षों की एक रात होती है। ब्रह्मा के इसी दिन को ‘कल्प’ (सर्ग) और रात को ‘प्रलय’ कहते हैं। ऐसे सौ वर्ष बीतने पर (महाप्रलय में) ब्रह्मा भी लीन हो जाते हैं।

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