सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
आठवाँ अध्याय(अक्षर ब्रह्म योग)हे पार्थ! जो समता रखते हुए मन को बार-बार परमात्मा में लगता है तथा जो एक परमात्मा के सिवाय अन्य किसी का चिन्तन नहीं करता, ऐसा साधक ‘सगुण-निराकार’ परमात्मा चिन्तन करते हुए शरीर छोड़कर उसी परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। वह सगुण निराकार परमात्मा सर्वज्ञ, अनादि, सब पर शासन करने वाला, सूक्ष्म से भी अत्यंत सूक्ष्म, सबका धारण-पोषण करने वाला, अज्ञान से अत्यंत परे और सूर्य की तरह प्रकाश (ज्ञान) स्वरूप है। ऐसे अचिन्त्य परमात्मा का जो चिन्तन करता है, वह भक्तियुक्त मनुष्य अंत समय में मन को परमात्मा में स्थिर करके और योगशक्ति के द्वारा भृकुटी के मध्य में प्राणों को अच्छी तरह से प्रविष्ट करके शरीर छोड़ने पर उस परम दिव्य सगुण-निराकार परमात्मा को ही प्राप्त हो जाता है। |
संबंधित लेख
अध्याय | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज