सहज गीता -रामसुखदास पृ. 41

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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सातवाँ अध्याय

(ज्ञान विज्ञान योग)

हे धनंजय! जैसे सूत की मणियाँ सूत के धागे में पिरोयी हुई हों तो उनमें सूत के सिवाय और कुछ नहीं है, ऐसे ही संसार में मेरे सिवाय और कुछ नहीं है। हे कौन्तेय! संसार में जो कुछ दीखता है, उसके मूल में (मूल कारण) मैं ही हूँ; जैसे- जलों में ‘रस’, चंद्रमा और सूर्य में ‘प्रकाश’, संपूर्ण वेदों में ‘ओंकार’, आकाश में ‘शब्द’ और मनुष्यों में ‘पुरुषार्थ’, पृथ्वी में पवित्र ‘गंध’ और अग्नि में ‘तेज’ मैं ही हूँ। जिस प्राणशक्ति से संपूर्ण प्राणी जी रहे हैं, वह ‘प्राणशक्ति’ भी मैं ही हूँ। तपस्वियों में ‘तप’ भी मैं ही हूँ। हे पार्थ! मैं ही संपूर्ण प्राणियों का अनादि (अविनाशी) ‘बीज’ हूँ। तात्पर्य है कि अनन्त ब्रह्माण्डों में अनन्त जीव हैं, पर उन अनन्त जीवों का बीज मैं एक ही हूँ। बुद्धिमानों में ‘बुद्धि’ और तेजस्वियों में ‘तेज’ भी मैं ही हूँ। हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! बलवानों में कामना तथा आसक्ति से रहित सात्त्विक ‘बल’ और प्राणियों में धर्मयुक्त ‘काम’ भी मैं ही हूँ। और तो क्या कहूँ, जितने भी सात्त्विक, राजस तथा तामस भाव (गुण, पदार्थ और क्रिया) हैं, वे सब मुझसे ही उत्पन्न होते हैं, मुझसे ही सत्ता-स्फूर्ति पाते हैं। परंतु मैं उनमें और वे मुझमें नहीं हैं। तात्पर्य है कि उन गुणों की मेरे सिवाय कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है अर्थात् सब कुछ मैं ही मैं हूँ। अतः साधक की दृष्टि इन भावों की तरफ न जाकर मेरी तरफ ही होनी चाहिए। परंतु इन तीनों गुणरूप भावों की अलग सत्ता मानकर जीवात्मा इनके साथ अपना संबंध जोड़ लेता है और फलस्वरूप बार-बार जन्मता मरता है। इस कारण वह इन तीनों गुणों से अतीत मुझ अविनाशी को नहीं जानता, मेरे सम्मुख नहीं होता।
यद्यपि सत्त्व, रज और तम- इन तीन गुणोंवाली मेरी माया से पार पाना बहुत ही कठिन है, तथापि जो केवल मेरे ही शरण होते हैं, वे इस माया को तर जाते हैं। परंतु माया को सत्ता और महत्ता देने के कारण जिनका विवेक ढक गया है, जो केवल अपने प्राणों का पोषण करने में ही लगे हुए हैं, ऐसे नीच तथा पाप-कर्म करने वाले अज्ञानी मनुष्य मेरे शरण नहीं होते।


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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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