सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
छठा अध्याय(आत्म संयम योग)परंतु जिसके भीतर वैराग्य है, वह साधक यदि किसी कारण से योगभ्रष्ट हो जाय तो वह स्वर्गादि लोकों में न जाकर सीधे ज्ञानवान् जीवन्मुक्त योगियों के कुल में जन्म लेता है। ऐसा जन्म संसार में निःसंदेह बहुत ही दुर्लभ है। हे कुरुनन्दन! योगियों के कुल में उसे अनायास ही पूर्वजन्म की साधन-सामग्री मिल जाती है। पूर्वजन्म में किए साधन के जो संस्कार उसकी बुद्धि में बैठे हुए हैं, वे उसे पुनः विशेषरूप से साधन में लगा देते हैं। परंतु जो योगभ्रष्ट श्रीमानों के घर में जन्म लेता है वह भोगों में आसक्त होता हुआ भी पूर्वजन्म में किए हुए साधन के कारण परमात्मा की तरफ जबर्दस्ती खिंच जाता है। कारण कि जब योग का जिज्ञासु भी वेदों में कहे हुए सकाम कर्म तथा उनके फलों को पार कर जाता है, फिर जो योग में लगा हुआ है, उस योगभ्रष्ट का पतन कैसे हो सकता है? उसका तो कल्याण होगा ही। वह (श्रीमानों के घर जन्म लेने वाला) विशेष जोर से परमात्मा में लग जाता है और इस प्रकार सब पापों से मुक्त हुआ और ‘अनेक जन्म संसिद्ध’[1] अर्थात् अनेक जन्मों में शुद्ध हुआ वह योगी परम गति को प्राप्त हो जाता है। कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, ध्यानयोगी, हठयोग, लययोगी, राजयोगी आदि जितने भी योगी हो सकते हैं, उन संपूर्ण योगियों में भी मेरा भक्त सर्वश्रेष्ठ है। कारण कि जो श्रद्धावान् भक्त मुझमें तल्लीन हुए मन से मेरा भजन करता है, वह मेरे मत में सर्वश्रेष्ठ योगी है। [भगवान् का आश्रय रहने के कारण भक्त कभी योगभ्रष्ट नहीं होता।]
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अध्याय | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
- ↑ पहले मनुष्यजन्म में साधन करने से शुद्धि हुई, फिर योग से विचलित होकर स्वर्गादि लोकों में जाने पर (भोगों से अरुचि होने पर) शुद्धि हुई और फिर श्रीमानों के घर जन्म लेकर साधन में तत्परता से लगने पर शुद्धि हुई, इस प्रकार तीन जन्मों में शुद्ध होना ही अनेक जन्मों में शुद्ध होना है।
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