सहज गीता -रामसुखदास पृ. 27

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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चौथा अध्याय

(ज्ञान कर्म संन्यास योग)

उपर्युक्त साधन करने वाले सभी साधकों के संपूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं और उन्हें परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। हे कुरुवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! यज्ञ करने वाला मनुष्य अमर हो जाता है और उसे परब्रह्मा परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। परंतु जो मनुष्य यज्ञ नहीं करता अर्थात् अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, वह इस लोक में भी सुख नहीं पाता, फिर परलोक में सुख कैसे पायेगा? पहले कहे हुए बारह यज्ञों के सिवाय और भी अनेक प्रकार के यज्ञों का वेदों में विस्तार से वर्णन किया गया है। वे सब के सब यज्ञ कर्मों से होने वाले हैं। परंतु जो कर्म करते हुए भी उससे निर्लिप्त रहने की विद्या जान लेता है कि वास्तव में कर्म नहीं बाँधते, अपितु कर्म तथा उसके फल में आसक्ति ही बाँधती है, वह कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है।
हे परंतप अर्जुन! जिन यज्ञों में कर्मों और पदार्थों की आवश्यकता होती है, उन सभी ‘द्रव्यमय’ यज्ञों से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है। कारण कि ज्ञानयज्ञ में संपूर्ण कर्मों और पदार्थों से संबंध-विच्छेद हो जाता है। यदि तुम कर्मों का त्याग करके ज्ञान प्राप्त करने को ही श्रेष्ठ मानते हो तो तुम किसी तत्त्वदर्शी (अनुभवी) तथा ज्ञानी (शास्त्रज्ञ) महापुरुष के पास जाओ, उन्हें साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करके अपने आपको उनके समर्पित कर दो, उनकी सेवा करो और परमात्मतत्त्व को जानने के लिए विनम्रतापूर्वक उनसे प्रश्न करो। ऐसा करने से वे तुम्हें तत्त्वज्ञान का उपदेश देंगे। उस तत्त्वज्ञान का अनुभव करने के बाद फिर तुम्हें कभी मोह नहीं होगा। कारण कि तत्त्वज्ञान अथवा अज्ञान का नाश एक ही बार होता है और सदा के लिए होता है।
तत्त्वज्ञान होते ही पहले ऐसा अनुभव होगा कि संपूर्ण प्राणी मेरी सत्ता के अंतर्गत हैं। फिर ऐसा अनुभव होगा कि मेरी सत्तासहित प्राणी एक परमात्मा के अंतर्गत हैं; एक परमात्मा के सिवाय कुछ भी नहीं है। अगर तुम संपूर्ण पापियों में भी सबसे अधिक पाप करने वाले हो तो भी तुम तत्त्वज्ञानरूपी नौका के द्वारा संपूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जाओगे। कारण कि पाप कितने ही क्यों न हों, हैं वे असत् ही, जबकि तत्त्वज्ञान सत् है। हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि संपूर्ण लकड़ियों को जलाकर भस्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि संपूर्ण कर्मों को सर्वथा भस्म कर देती है। मनुष्यलोक में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह दूसरा कोई साधन नहीं है। परंतु जिसका कर्मयोग सिद्ध हो गया है, वह उसी तत्त्वज्ञान को दूसरे किसी साधन के बिना स्वयं अपने आप में ही तत्काल प्राप्त कर लेता है। तात्पर्य है कि जो ज्ञान गुरु के पास रहकर उनकी सेवा आदि करने से होता है, वही ज्ञान कर्मयोग के द्वारा मनुष्य को अपने-आप हो जाता है। यह कर्मयोग की विशेषता है।

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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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