सहज गीता -रामसुखदास पृ. 18

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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तीसरा अध्याय

(कर्म योग)

परमात्मा से वेद प्रकट होते हैं। वेद कर्तव्य कर्मों को करने की विधि बताते हैं। मनुष्य उस कर्तव्य का विधिपूर्वक पालन करते हैं। कर्तव्य कर्मों के पालन से यज्ञ होता है। यज्ञ से वर्षा होती है। वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है। अन्न से संपूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं और उन्हीं प्राणियों में से मनुष्य कर्तव्य कर्मों के पालन से यज्ञ करते हैं। इस तरह यह सृष्टि चक्र चल रहा है। परमात्मा सर्वव्यापी होने पर भी विशेषरूप से ‘यज्ञ’ (कर्तव्य-कर्म)- में सदा विद्यमान रहते हैं। इसलिए मनुष्य निष्काम भाव से अपने कर्तव्य का पालन करके तुम्हें सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकते हैं। हे पार्थ! जो मनुष्य इस सृष्टि चक्र के अनुसार अपने कर्तव्य का पालन न करके भोगों में ही लगा रहता है, उस पापी मनुष्य का संसार में जीना ही व्यर्थ है। तात्पर्य है कि यदि वह अपने कर्तव्य का पालन करके सृष्टि को सुख नहीं पहुँचाता तो कम से कम दुख तो न पहुँचाये। [जिस तरह गतिशील बैलगाड़ी का कोई एक पहिया भी खण्डित हो जाय तो उससे पूरी बैलगाड़ी को झटका लगता है, इसी तरह गतिशील सृष्टि चक्र में कोई एक मनुष्य भी अपने कर्तव्य से गिरता है तो उसका उल्टा प्रभाव पूरी सृष्टि पर पड़ता है। इसके विपरीत जैसे शरीर का एक भी बीमार अंग ठीक होने पर पूरे शरीर का स्वतः हित होता है, ऐसे ही एक भी मनुष्य अपने कर्तव्य का ठीक-ठीक पालन करता है तो उसके द्वारा पूरी सृष्टि का स्वतः हित होता है।] जिसने अपने कर्तव्य का पालन करके संसार से संबंध विच्छेद कर लिया है, उस (कर्मयोग से सिद्ध) महापुरुष की प्रीति, तृप्ति और संतुष्टि संसार में न होकर अपने स्वरूप में ही होती हैं। ऐसे महापुरुष के लिए कुछ भी करना, जानना अथवा पाना शेष नहीं रहता। उसका इस संसार म न तो कर्म करने से कोई मतलब रहता है और न कर्म नहीं करने से ही कोई मतलब रहता है। उसका किसी भी प्राणी और पदार्थ से किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता। इसलिए तुम भी निरंतर आसक्तिरहित रहते हुए अपने कर्तव्य कर्म का पालन करो; क्योंकि जो मनुष्य कुछ भी कामना न रखकर कर्तव्य-कर्म करता है, वह परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।


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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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