सहज गीता -रामसुखदास पृ. 17

सहज गीता -स्वामी रामसुखदास

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तीसरा अध्याय

(कर्म योग)

कर्तव्यमात्र का नाम ‘यज्ञ’ है। जो मनुष्य ‘यज्ञ’ (कर्तव्य कर्म) नहीं करता अर्थात् दूसरों के हित के लिए कर्म न करके केवल अपने लिए (सकामभाव से) कर्म करताहै, वही कर्मों से बँधता है। इसलिए हे कुन्तीनन्दन! तुम दूसरों के हित के लिए ही कर्तव्य कर्म करो। प्रजापति ब्रह्मा जी ने सृष्टि के आरंभ में कर्तव्य-कर्म की योग्यता और विवेक सहित मनुष्यों की रचना करके उनसे कहा कि तुम लोग अपने-अपने कर्तव्य कर्मों द्वारा सबकी उन्नति करो। ऐसा करने से तुम लोगों को कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यक सामग्री प्राप्त होती रहेगी। अपने कर्तव्य कर्म के द्वारा तुम लोग देवताओं को उन्नत करो और वे देवतालोग अपने कर्तव्य के द्वारा तुम्हें उन्नत करें। इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे। यज्ञ से पुष्ट हुए देवता लोग भी तुम लोगों को बिना माँगे ही कर्तव्य पालन की आवश्यकता सामग्री देते रहेंगे। परंतु उन देवताओ की दी हुई सामग्री को जो मनुष्य दूसरों की सेवा में न लगाकर अर्थात् दूसरों को उनका भाग न देकर स्वयं अकेले ही उसका उपभोग करता है, वह चोर ही है। कारण कि शरीर आदि जो कुछ भी हमारे पास है, वह सब हमें संसार से ही मिला है। संसार से मिली वस्तु को केवल अपनी स्वार्थ सिद्धि में लगाना ईमानदारी नहीं है।
निष्कामभाव से अपने कर्तव्य का पालन करने से योग (समता)- की प्राप्ति होती है। यह योग ही ‘यज्ञशेष’ है। जो मनुष्य इस यज्ञशेष का अनुभव कर लेता है, वह संपूर्ण पापों से छूटकर मुक्त हो जाता है। परंतु जो संसार से मिली हुई वस्तुओं को संसार की सेवा में न लगाकर अपने सुखभोग में लगाता है, वह पापी मनुष्य केवल पाप ही कमाता है।


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सहज गीता -रामसुखदास
अध्याय पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. अर्जुन विषाद योग 1
2. सांख्य योग 6
3. कर्म योग 16
4. ज्ञान कर्म संन्यास योग 22
5. कर्म संन्यास योग 29
6. आत्म संयम योग 33
7. ज्ञान विज्ञान योग 40
8. अक्षर ब्रह्म योग 45
9. राज विद्याराज गुह्य योग 49
10. विभूति योग 55
11. विश्वरुपदर्शन योग 60
12. भक्ति योग 67
13. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग 70
14. गुणत्रयविभाग योग 76
15. पुरुषोत्तम योग 80
16. दैवासुर सम्पद्विभाग योग 84
17. श्रद्धात्रय विभाग योग 89
18. मोक्ष संन्यास योग 93
गीता सार 104

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