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सहज गीता -स्वामी रामसुखदास
गीता सारनवें अध्याय का सारसभी मनुष्य भगवत्प्राप्ति के अधिकारी हैं, चाहे वे किसी भी वर्ण, आश्रम, संप्रदाय, देश, वेश आदि के क्यों न हों। दसवें अध्याय का सारसंसार में जहाँ भी विलक्षणता, विशेषता, सुंदरता, महत्ता, विद्वत्ता, बलवत्ता आदि दीखे, उसको भगवान् का ही मानकर भगवान् का ही चिन्तन करना चाहिए। ग्यारहवें अध्याय का सारइस जगत को भगवान् का ही स्वरूप मानकर प्रत्येक मनुष्य भगवान् के विराट् रूप के दर्शन कर सकता है। बारहवें अध्याय का सारजो भक्त शरीर-इन्द्रिया-मन-बुद्धिसहित अपने-आपको भगवान् के अर्पण कर देता है, वह भगवान् को प्रिय होता है।
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