सर्व त्यागमय अति महान यह तुहरौ दुरलभ भाव!
तदपि दैन्य तें सन्यौ सहज नित, तनिक न मान-लगाव॥
भाव-सुधा-रस-बारिधि या कौ मिलै जु सीकर एक।
बनै धन्य मेरौ जीवन, तब रहै प्रेम की टेक॥
सहम गई, लज्जित भइ भारी, राधा सुनि प्रिय बैन।
धरती लगी कुरेदन, धारा बही सलिल दोउ नैन॥
बानी रुकी, कंठ भये गदगद, काँपी कंचन देह।
बरसन लग्यौ अमित उर अंतर सहज दैन्य-रस-मेह॥
अधम, निपट गुनरहित, मलिन-मन, औगुन की आगार।
विरहित नित सौन्दर्य, रहित माधुर्य कुरुपाकार॥
लेती रही नित्य सुख तिन्ह तें, निज सुख कौ नित चाव।
इतनौ ही प्रेमार्थ लह्यौ मन, यही मम महाभाव॥
बोली अति धीरज धर राधा-’सुनो, जीवनाधार!
हौं अति नीच मान की भूखी, मन अति तुच्छ बिचार॥
निकसे नहीं बिषम बानी सुन, या तें ये पबि-प्रान।
विदर्यौ नहीं हियौ कुलिसाधिक तुम तें लहि समान॥
निस्चै ही प्रानेस्वर हौ तुम इतने अर्थ ’गँवार’।
देख रहे जो मो-सी नीच अधम मैं गुन-संभार॥