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यह न्याय दर्शन का सिद्धान्त है।
वेदान्त का फल अनामयपद 2।51
समाधि 2।53
रसो वै सः 2।59 वेदान्ततत्त्व
ब्राह्मी स्थिति 2।72 वेदान्त तथा योग
इस तरह सर्वत्र गीता में ओत-प्रोत दार्शनिक सिद्धान्तों का संकलन करने से व्यर्थ ही लेख का कलेवर बढ़ेगा। विज्ञ तथा विचक्षण पाठक स्वयं अनुसन्धान कर सकते हैं। इसलिये गीता की उपादेयता में जिस प्रकार उपनिषदों के रहस्य काम देते हैं उसी प्रकार दार्शनिक सिद्धान्त भी गीता की उपादेयता को बढ़ाते हैं। गीता क्या है ? न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा, कर्मकाण्ड, वेद, धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, समाजशास्त्र इत्यादिका परस्पर सहयोग से आनन्द अनुभव करने का स्थान है- विरोध परिहार और समन्वय का अखाड़ा है-
11. स्थूल विवेचक गीता में परस्पर विरोध देखेंगे, किन्तु सूक्ष्म आलोचक देखेंगे कि प्रत्येक का अपने-अपने स्थान में महत्त्व है और जहाँ वह स्थान छूटा कि उसका महत्त्व नहीं रहा। न्यायशास्त्र अथवा वैशेषिक शास्त्र अपने पद पर ठीक हैं किन्तु जहाँ ब्राह्मी स्थिति का दिग्दर्शन होगा वहाँ उनको कौन पूछता है। कर्मकाण्ड की भला वहाँ क्या पूछ है ? कर्मकाण्ड सांसारिक बन्धन में काम देते हैं, निर्गुण ब्रह्म के दरबार में उनका क्या काम ? साक्षात् वेदों का भी वहाँ प्रवेश नहीं, अन्यों की तो बात ही क्या ? सांख्य भी आत्मा तक ही रह जाता है, परमात्मा तक नहीं पहुँचता। योग भी सवितर्क समाधि तक रह जाता है, आगे निर्विकल्प समाधि में क्या होता है इसकी उसको कुछ खबर नहीं। इस तरह प्रत्येक शास्त्र का विषिष्ट स्थान है। मैं समझता हूँ कि इस ‘कृष्णांक’ में इतना ही संक्षिप्त विवेचन पर्याप्त है।
सर्वव्यापी श्री कृष्ण
कृष्ण! तव सत्ता ही सब ठौर,
दीखता मुझे नहीं कुछ और ।
जहाँ तक जाती मेरी दृष्टि,
तुझी से व्याप्त मिली सब सृष्टि ।। 1 ।।
तु ही है काल-पुरुष का आदि,
इसीसे कहते तुझे अनादि ।
शमनका है अवश्य तू अंत,
कृपामय! तेरा रूप अनंत ।। 2 ।।
कृत-त्रेता द्वापरकलि हीन-
रहे कब तुझसे कृष्ण! विहीन?
सदा ही वर्ष-अयन-दिन-पक्ष-
रूप से आता नित्य समक्ष ।। 3 ।।
सुवर्षा, ग्रीष्म तथा हेमंत,
कांतिमय सु-शरद शिशिर वसंत ।
भ्रमर, कोकिलका सुन्दर गान,
सभीमें होता तेरा भान ।। 4 ।।
सभी है, स्वर्ग, नरक नरलोक,
तुझीसे पूर्ण, हर्ष औ शोक ।
महत्तम सृष्टि, सुपालन नाश,
सभी में है तेरा आभास ।। 5 ।।
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