सरन आए को प्रभु, लाज धरिऐ।
सध्यौ नहिं धर्म नुचि, सील, तप, व्रत कछू, कहा मुख लै तुम्हैं बिनै करिऐ।
कछू चाहौं कहौं, सकुचि मन मैं रहौं, आपने कर्म लखि त्रास आवै।
यहै निज सार, आधार मेरौं यहै, पतित-पावन विरद बेद गावै।
जन्म तै एक टक लागि आसा रही, विषय-विष खात नहिं तृप्ति मानी।
जो छिया छरद करि सकल संतनि तजी, तासु तैं मूढ़-मति प्रीति ठानी।
पाप-भारग जिते सबै कीन्हें तिते, बच्यौ नहिं काउ जहँ सुरति मेरी।
सूर अवगुन भरयौ, आइ द्वारे परयो, तकै गौपाल, अब सरन तेरो।।।110।।