सरद सुहाई आई राति 9 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

Prev.png
राग धनाश्री


अंगनि कोटि अंनग छबि।
हस्तक भेद ललित गति लई। अंचल उड़त अधिक छबि भई।।
कुच बिगलित माला गिरी।
हरि करुना करि लई उठाई। पोंछत स्रम-जल कंठ लगाई।।
रास रसिक गुन गाई हो।
तिनहिं लिवाई जमुन जल गए। पुलिन पुनीत निकुंजनि ठए।।
अंग स्रमित सब के भए।
जैसें मद गज कूल बिदारि। तैसें संग ले खेली नारि।।
संक न काहू की करी।
मेटी लोक-वेद-कुल-मेड़िं। निकसि कुंवरि खेल्यौ करि ऐंड़ि।।
फबी सबै जो मन धरी।
जल-थल क्रीड़त ब्रीड़त नहीं। तिनकी लीला परत न कहीं।।
रास रसिक गुन गाई हो।
कह्यौ भागवत सुक अनुराग। कैसें समुझैं बिनु बड़ भाग।।
श्री गुरु सकल कृपा करी।
सूर आस करि बरन्यौ रास। चाहत हौं बृंदाबन बास।।
राधा (बर) इतनी करि कृपा।
निसि दिन स्याम सेउं मैं तोहिं। यहै कृपा करि दीजै मोहिं।।
नव निकुंज सुख पुंज मैं।
हरि बंसी हरि-दासी जहाँ। हरि करूना करि राखहु तहां।।
नित बिहार आभार दै।
कहत सुनत बाढ़त रत रीति। बक्ता स्त्रोता हरि पद प्रीति।।
रास रसिक गुन गाई हो।।।1180।।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः