सरद सुहाई आई राति 8 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री


राधारवन ठगे सबै।
गिरिवर तरुवर पुलकित गात। गोधन-थन तैं दूध चुचात।।
सुनि खग मृग मुनि ब्रत धरयौ।
महि फूलो भूल्यौ गति पौन। सोवत ग्वाल तजत नहिं भौन।।
रास रसिक गुन गाइ हो।
राग रागिनी मूरतिवंत। दूलह दूलहिनि सरस बसंत।।
कोक कला संगीत गुर।
सप्त सुरनि की जाति अनेक। नीकैं मिलवति राधा एक।।
मन मोह्यौ पिय को सुघर।
छंद ध्रुवनि के भेद अपार। नाचति कुंवरि मिले झपतार।।
कह्यौ सबै संगीत मैं।
पिकनि रिझावति सुंदर सुपद। सरद स्वल्प ध्व‍नि उघटत सुखद।।
रास रसिक गुन गाइ हो।
चलति सु मोहति गति गज हंस। हंसत परस्पर गावत गंस।।
तान मान मृग मन थके।
गौरी चंदन चर्चित बाहु। लेत सुबास पुलक तनु नाहू।।
दै चुंबन हरि सुख लियौ।
स्यामल गौर कपोल सुचारु। रीझि परस्पर लेत उगारु।।
एक प्रान द्वै देह हैं।
नाचत गावत गुन की खानि। स्रमित भए टेकत पिय पानि।।
रास रसिक गुन गाइ हो।
पिक गावत अलि नादहिं देत। मोर चकोर फिरत संग हेत।।
सघन जुन्हाई है मनौ।
कच कुच-बिच देखे हंसि स्याम। चलत भौंह नैननि अभिराम।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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