समुझि री नाहिन नई सगाई।
सुनि राधिके तोहिं माधौ सौ, प्रीति सदा चलि आई।।
जब जब मान कियौ मोहन सौ, बिकल होत अधिकाई।
बिरहानल सब लोक जरत है, आपु रहत जलसाई।।
सिंधु मथ्यौ, सागरबल बाँध्यौ, रिपु रन जीति मिलाई।
अब सो त्रिभुवननाथ नेहबस, बन बाँसुरी बजाई।।
प्रकृति पुरुष, श्रीपति, सीतापति, अनुक्रम कथा सुनाई।
'सूर' इती रस रीति स्याम सौ तै ब्रज बसि बिसराई।।2816।।