समुझि अब निराख जानकी-मोहिं -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

Prev.png
राग मारू
निशिचरी-वचन, जानकी-प्रति


 
समुझि अब निराख जानकी-मोहिं।
बड़ौ भाग गुनि, अगम दसानन, सिव वर दीनौ तोहिं।
केतिक राम कुपन, ताकी पितु-मातु घटाई कानि।
तेरौ पिता जो जनक जानकी, कीरति कहौं बखानि।
विधि संजोग टरत नहिं टारैं, बन दुख देख्यौ आनि।
अव रावन घर बिलसि सहज सुख, कह्यौ हमारी मानि।
इतनी वचन सुनत सिर धुनि कै, बोली सिया रिसाइ।
अहो ढीठ, मति मुग्ध निसिचरी, बैठी सनमुख आइ।
तव रावन कौ बदन देखिहौं, दससिर-स्त्रोनित न्हाइ।
कै तन देउँ मध्य पावक के कै विलसैं रघुराइ।
जौ पैं पतिव्रता व्रत तेरैं, जीवति बिछुरी काइ?
तब किन मुई, कहौ तुम मोसौं भुजा गही जब राइ?
अव झूठौ अभिमान करति हौ, झुकति जो उनकै नाउँ।
सुखहीं रहसि मिलौ रावन कौं, अपनैं सहज सुभाउ।
जौ तू रामहिं दोष लगावै, करौं प्रान कौ घात।
तुमरे कुल कौं वेर न लागै, होत भस्मा संघात।
उनकैं क्रोध जरै लंकापति, तेरैं हृदय समाइ।
तौं पै सूर पतिव्रत साँचौं, जो देखौं रघुराई॥77॥

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः