सबै रहीं जल-माँझ उघारी।
बार-बार हा-हा करि थाकीं, मैं तट लई हँँकारी।।
आई निकसि बसन बिनु तरुनी, बहुत करी मनुहारी।
कैसे हाल भए तब सबके, सो तुम सुरति बिसारी।।
हमहि कहत दधि-दूध चुरायौ, अरू बाँधे महतारी।
सूर स्याम के भेद-बचन सुनि, हँसि सकुचीं ब्रजनारी।।1561।।