सबहिनी तै हित है जन मेरी।
जनम जनम सुनि सुवल सुदामा, निबहौ यह प्रन बेरौ।।
व्रह्मादिक इंद्रादिक तेऊ, जानत बल सब केरौ।
एकहि साँस उसास त्रास उडि, चलते तजि निज खेरौ।।
कहा भयो जो देस द्वारिका, कीन्ही दूरि बसेरौ।
आपुन ही या व्रज के कारन, करिहौ फिरि फिरि फेरौ।।
इहाँ उहाँ हम फिरत साधु हित, करत असाधु अहेरौ।
‘सूर’ हृदय तै टरत न गोकुल, अंग छुअत हौ तेरौ।। 4295।।