सबरी-आस्रम रघुबर आए। अरधासन दै प्रभु बैठाए।
खाटे फल तजि मीठे ल्याई। जूँठे भए सो सहुज सुहाई।
अंतरजामी अति हित मानि। भोजन कीने, स्वाद बखानि।
जाति न काहू की प्रभु जानत। भक्ति-भाव हरि जुग-जुग मानत।
करि दंडवत मई वलिहारो। पुनि तन तजि हरि-लोक सिधारी।
सूरज प्रभु अति करुना भई। निज करि करि तिल-अंजलि दई॥67॥