सबनि सनेहौ छाँड़ि दयौ।
हा जदुनाथ ! जरा तन ग्रास्यौ, प्रतिभौ उतरि गयौ।
सोइ तिथि-बार-नछत्र-लगन-ग्रह, सोइ जिहिं ठाठ ठयौ।
तिन अंकनि कोउ फिरि नहिं बाँचत, गत स्वारथ समयौ।
सोइ धन-धाम, नाम सोई, कुल सोई जिहि बिढ़यौ।
अब सबही कौ बदन स्वान लौं, चितवत दूरि भयौ।
बरष दिवस करि होत पुरातन, फिरि-फिरि लिखत नयौ।
निज कृति-दोष बिचारि सूर प्रभु तुम्हरी सरन गयौ।।298।।