सतुगुरु चरन भजे बिनु विद्या, कहु कैसे कोउ पावै।
उपदेसक हरि दूरि रहे तै, क्यौ हमरे मन आवै।।
जौ हित कियौ तौ अधिक करहिं किन, आपुन आनि सिखावै।
जोग बोझ तैं चलि न सकै तौ, हमही क्यौ न बुलावै।।
जोग ज्ञान मुनि नगर तजे बरु, सघन गहन वन धावै।
आसन मौन नेम मन संजम, बिपिन मध्य बनि आवै।।
आपुन कहै करै कछु औरै हम सबहिनि दहकावै।
'सूरदास' ऊधौ सौ स्यामा अति सकेत जनावै।।3709।।