सघन कुंज तै उठे भोरही, स्यामा स्याम खरे।
जलद नवीन मिली मनु दामिनि, बरषि निसा उसरे।।
सिथिल बसन तन नील-पीत दुति, आलस जुत पहिरे।
स्रमजल-बुद कहूँ-कहुँ उड़गन, वदरनि मै निकरे।।
भूषन बिबिध भाँति मेड़बारी, रतिरस उमँगि भरे।
कागर अधर, तमोल नैन रँग, अँग-अँग झील परे।।
प्रेमप्रवाह चली मनु सरिता, टूटी माल गरे।
सोभा अमित बिलोकि 'सूर' प्रभु क्यौ सुख जात तरे।।2470।।