सखीभाव संप्रदाय


संक्षिप्त परिचय
सखीभाव संप्रदाय
स्वामी हरिदास जी
विवरण 'सखीभाव सम्प्रदाय' 'निम्बार्क मत' की ही एक शाखा है। इस संप्रदाय में भगवान श्रीकृष्ण की उपासना सखीभाव से की जाती है।
अन्य नाम 'हरिदासी संप्रदाय', 'सखी संप्रदाय'
संस्थापक स्वामी हरिदास
उपास्य देव भगवान श्रीकृष्ण
संबंधित लेख स्वामी हरिदास, कृष्ण, राधा, ललिता सखी
अन्य जानकारी नाभादास जी ने अपने 'भक्तमाल' में कहा है कि- "सखी सम्प्रदाय में राधा-कृष्ण की उपासना और आराधना की लीलाओं का अवलोकन साधक सखीभाव से कहता है। सखी सम्प्रदाय में प्रेम की गम्भीरता और निर्मलता दर्शनीय है।

सखीभाव संप्रदाय के प्रवर्तक स्वामी हरिदास थे। यह संप्रदाय 'निम्बार्क मत' की ही एक शाखा है। इस संप्रदाय में भगवान श्रीकृष्ण की उपासना सखीभाव से की जाती है। इनके मत से ज्ञान में भवसागर उतारने की क्षमता नहीं है। प्रेमपूर्वक श्रीकृष्ण की भक्ति से ही मुक्ति मिल सकती है। इस संप्रदाय के कवियों की रचनाएं ज्ञान की व्यर्थता और प्रेम की महत्ता का प्रतिपादन करती हैं।

संस्थापक

सखी सम्प्रदाय निम्बार्क मत की एक अवान्तर शाखा है। इस सम्प्रदाय के संस्थापक स्वामी हरिदास थे। हरिदास जी पहले निम्बार्क मत के अनुयायी थे, परन्तु कालान्तर में भगवद्धक्ति के गोपी भाव को उन्नत और उपयुक्त साधन मानकर उन्होंने इस स्वतन्त्र सम्प्रदाय की स्थापना की। हरिदास का जन्म समय भाद्रपद अष्टमी, संवत 1441 है। ये स्वभावत: विरक्त और भावुक थे। सखी सम्प्रदाय के अन्तर्गत वेदान्त के किसी विशेष वाद या विचारधारा का प्रतिपादन नहीं हुआ, वरन् सगुण कृष्ण की सखी-भावना से उपासना करना ही उनकी साधना का एक मात्र ध्येय और लक्ष्य है। इसे भक्ति सम्प्रदाय का एक साधन मार्ग कहना अधिक उपयुक्त होगा।

उपासना वर आराधना

नाभादास जी ने अपने 'भक्तमाल' में कहा है कि- "सखी सम्प्रदाय में राधा-कृष्ण की उपासना और आराधना की लीलाओं का अवलोकन साधक सखीभाव से कहता है। सखी सम्प्रदाय में प्रेम की गम्भीरता और निर्मलता दर्शनीय है। हरिदास के पदों में भी प्रेम को ही प्रधानता दी गयी है। हरिदास तथा सखी सम्प्रदाय के अन्य कवियों की रचनाओं में प्रेम की उत्कृष्टता और महत्ता को सिद्ध करने के लिए भाँति-भाँति से ज्ञान की व्यर्थता और अनुपादेयता प्रकाशित की गयी है। इनके मत से प्रेमसागर पार करने के लिए ज्ञान की सार्थकता नहीं है। ज्ञान में भवसागर से पार उतारने की क्षमता नहीं है। श्रीकृष्ण की प्रेमानुगा भक्ति में दिव्य शक्ति है, उन्हीं के चरणों में अपने को न्योछावर कर देना अपेक्षित है। सखी-सम्प्रदाय में उपसना माधुर्य, प्रेम की गम्भीरता और मधुर रस की विशेषता है।

रचनाएँ

स्वामी हरिदास की वाहरविषयक पदावली 'केलिमाला' के नाम से प्रसिद्ध है। इनकी रस-पेशल वाणी में माधुर्य और हृदय के उदान्त भाव, प्रेम का भव्य रूप दर्शनीय है। भगवत रसिक की पाँच रचनाएँ प्रसिद्ध हैं-

  1. 'अनन्यनिश्चयात्मक'
  2. 'श्रीनित्यविहारी युगल ध्यान'
  3. 'अनन्यरसिकाभरण'
  4. 'निश्चयात्मक ग्रन्थ उत्तरार्ध'
  5. 'निबोंध मनरंजन'


'भगवत रसिक की वानी' के नाम से इनका काव्यसंग्रह प्रकाशित हुआ है। सहचरिशरण और सखि शरण की फुटकर रचनाओं के अतिरिक्त दो और पुस्तकें हैं-

  1. 'ललितप्रकाश'
  2. 'सरस मंजावली'

ये ग्रन्थ सम्प्रदाय के इतिहास और साधना पक्ष पर अच्छा प्रकाश डालते हैं।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सहायक ग्रन्थ- 'ब्रज माधुरी सार' : वियोगी हरि

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