सखी री हरि आवहि किहिं हेत।
वै राजा तुम ग्वारि बुलावत, यहै परेखौ लेत।।
अब सिर कनक छत्र राजत है, मोर पंख नहिं भावत।
सुनि ब्रजराज पीठि दै बैठत, जदुकुल बिरह बुलावत।।
द्वारपाल अति पौरि बिराजत, दासी सहस अपार।
गोकुल गाइ दुहत दुख कौ लौ, ‘सूर’ सहे इक बार।। 3278।।