सखी री दिखरावहु वह देस ।
कहा कहौ या ब्रज बसि हरि बिनु, लह्यौ न सुख की लेस ।।
सुख मीठी अक्रूर जु दीन्ही, हम सिसु दीन्हौ जान ।
जानि न बधिक बिभेसौ मृग ज्यौ, हनत बिसासी प्रान ।।
मैं मधु ज्यौ राखे सँचि मोहन, ते भृंगी की रीति ।
दै दृगछाट अवधि लै गवने, सुनियत जहाँ अनीति ।।
मोहन बिन हम बसत घोप महँ भई तीसरी साँझ ।
'सूरदास' ये प्रान पतित अब, कहा रहत घट माँझ ।। 3225 ।।