सखियनि बीच नागरी आवै।
छबि निरखत रीझ्यौ नंद-नंदन, प्यारी मनहिं रिझावै।।
कबहुँक आगैं, कबहुँक पाछैं, नाना भाव बतावै।
राधा यह अनुमान करै, हरि मेरे चितहिं चुरावै।।
आगैं जाइ कनक लकुटी लै, पंथ सँवारि बनावै।
निरखत जहाँ छाँह प्यारी की, तहँ लै छाँह छुवावै।।
छबि निरखत तन वारत अपनौ, नागरि-जियहिं जनावै।
अपने सिर पीतांबर वारत, ऐसैं रुचि उपजावै।।
ओढ़ि उढ़निया चलत दिखावत, इहिं मिस निकटहिं आवै।
सूर स्याम ऐसे भावनि सौं, राधा-मनहिं रिझावै।।1440।।