सकुचि तन उदधिसुता मुसुकानी।
रबि-सारथी-सहोदर ता पति, अंबर लेत लजानी।।
सारँग पानि मूँदि मृगनैनी, मनि मुख माँझ समानी।
चरन चापि महि प्रगट करी पिय, सेस सीस सहिदानी।।
'सूरदास' तब कह करै अबला, जब हरि यममति ठानी।
भुज अंकम भरि, चापि कठिन डरि, स्याम कंठ लपटानी।।2624।।