संत हृदय वसुदेव जी का पुत्र प्रेम
जन्म ते मय्यसौ पापो मा विद्यान्मधुसूदन।
समुद्विजे भवद्धेतो: कंसादहमधीरधी:॥[1]
‘वह इस बात को न जानने पावे कि आपका प्रादुर्भाव मेरे ही यहाँ हुआ है। मैं आपके लिये इस कंस से बहुत ही डरी हुई हूँ।
भगवान ने पहले उसी काँटे को निकाला, फिर माता-पिता को अभय करके उनकी बेड़ियाँ-हथकड़ियाँ काटीं और स्वयं उनके चरणों पर गिरे।
अहा! चिरकाल के बिछुड़े अपने पुत्र को पाकर वसुदेवजी कितने प्रसन्न हुए होंगे, उनकी प्रसन्नता का वर्णन भला कौन कर सकता है! किंतु उनके मन में भगवान के प्रति ईश्वर-बुद्धि आ गयी, ऐश्वर्य में प्रेम रसास्वादन कहाँ? अंतर्यामी प्रभु समझ गये और बोले -न लब्धो दैवहतयोर्वासो नौ भवदन्ति के।
यां बाला: पितृगेहस्था विंदते लालिता मुदम्॥
तन्नावकल्पयो: कंसान्नित्यमुद्विग्नचेतसो:।
मोघमेते व्यतिक्रांता दिवसा वामनर्चतो:॥
तत्क्षंतुमर्हथस्तात मातनौं परतन्त्रयो:।
अकुर्वतोर्वां शुश्रूषां क्लिष्टयोर्दुर्हृदा भृशम्॥[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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