संत सूरदास का वात्सल्य प्रेम 9

संत सूरदास का वात्सल्य प्रेम


सूरदास ने माता यशोदा द्वारा श्रीकृष्ण के घुटनों-चलने, पावों-चलने, दूध के दाँत देखने, तोतले वचन बोलने और बाल-क्रीड़ा करने के अपने नाना भाँति के मनोरथों, अपनी अभिलाषा को शब्दों द्वारा अभिव्यक्ति दी है। माता के हृदय का एक अत्यन्त भावभरा मार्मिक पद द्रष्टव्य है-

जसुमति मन अभिलाष करै।
कब मेरौ लाल घुटरुवनि रेंगै, कब धरनी पग द्वैक धरै।।
कब द्वै दाँत दूध के देखौं, कब तोतरैं मुख बचन झरै।
कब नंदहिं बाबा कहि बोलै, कब जननी कहि मोहिं ररै।।
कब मेरौ अँचरा गहि मोहन, जोइ-सोई कहि मोसौं झगरै।
कब धौं तनक-तनक कछु खैहै, अपने कर सौं मुखहिं भरै।।[1]

यशोदा जी के प्रतयेक कार्य में-बच्चे के लालन-पालन में वात्सल्य झलकता है। प्रातः उठने के लिये, मुँह धाने के लिये और माखन रोटी खाने के लिये बड़े अनुराग से श्रीकृष्ण को राजी करती हैं। वे श्रीकृष्ण के बड़ा होने पर स्तन्य छुड़ाना चाहती हैं तो कितनी ममता-वात्सल्यभरी कला से उनको समझाती हैं देखो अब तुम बड़े हो गये हो, माँ का दूध पियोगे तो तुम्हारे अच्छे दाँत बिगड़ जायँगे-

‘जैहैं बिगरि दाँत ये अच्छे, तातैं कहि समुझावति।’

ग्वाल-बाल चिढ़ाते हैं कि ‘श्रीकृष्ण को मोल लिया है’, तो समझाती हैं-

‘सूर स्याम मोहिं गोधन की सौं, हौं माता तू पूत।।’

खेलते समय श्रीकृष्ण यशोदा से आँख मुँदवाते हैं। श्रीकृष्ण सब बच्चों में छोटे हैं, यशोदा चाहती हैं कि श्रीकृष्ण जीत जायँ। वे बता देती हैं कि बच्चे किधर हैं और श्रीकृष्ण श्रीदामा को पकड़ लेते हैं। श्रीदामा के चोर होने पर कवि ने भावाभिव्यक्ति की है-

हँसि-हँसि तारी देत सखा सब, भए श्रीदामा चोर।
सूरदास हँसि कहत जसोदा, जीत्यौ है सुत मोर।।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सूरसागर 694
  2. सूरसागर 848

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