संत सूरदास का वात्सल्य प्रेम
सूरदास ने भगवान की रूपमाधुरी का तरह-तरह से वर्णन किया है। उनकी किलकारी, हँसी और बालक्रीड़ा, तोतले वचन आदि की शोभा का शब्दों द्वारा वर्णन नहीं किया जा सकता। अतः वे कहते हैं-
जो मेरी अँखियनि रसना होतीं कहतीं रूप बनाइ री।
चिर जीवहु जसुदा कौ ढोटा, सूरदास बलि जाइ री।।
बालस्वभाव-चित्रण-सूरदास जी ने बालस्वभाव का चित्रण बड़ी बारीकी से किया है। बच्चों की प्रकृति के भीतर जितनी पैठ सूर ने लगायी है, उतनी और किसी कवि ने नहीं लगायी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ठीक ही कहा है कि सूर ने बालहृदय का कोना-कोना झाँक लिया था। बच्चों में स्पर्धा का भाव बड़ा प्रबल होता है। यशोदा श्रीकृष्ण को दूध पिलाना चाहती हैं। इससे तुम्हारी चोटी बढ़ जायगी और बलराम जैसी हो जायगी। स्पर्धावाश वे दूध पीने लगते हैं, पर वे चाहते हैं कि दूध पीते ही चोटी बढ़ जानी चाहिये। वे माता से पूछने लगते हैं-
मैया, कबहिं बढै़गी चोटी!
किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहू है छोटी![1]
सूरदास जी ने बालकृष्ण के स्वभाव के अनेक चित्र उरेहे हैं। गाय दुहने तथा चराने के लिये आग्रह करना, रैता, पैता, मना, मनसुखा और हलधर के साथ गोचारण को जाना, सब के साथ शिला पर बैठकर भोजन करना, दाऊ के डर की बात करना, मिट्टी खाना, कहानी सुनने का चाव रखना, खाना खाते समय कुछ खाना, कुछ गिराना आदि अनेक बालस्वभाव के चित्रण के शताधिक पद सूर ने लिखे हैं। उनके बालसुलभ हठा का बड़ा वात्सल्यभरा और बालमनोविज्ञान से पुष्ट चित्रण सूर ने अनेक पदों में किया है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सूरसागर 793
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