श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
21. पौण्ड्रक वासुदेव
'स्वामी! पौण्ड्रक रंगमंच पर होता तो बहुत श्रेष्ठ नट सिद्ध होता।' दारुक ने पौण्ड्रक का कृत्रिम वेश देखा तो उसके अभिनय की प्रशंसा की- 'यह इसका दुर्भाग्य कि अपनी कृत्रिमता से स्वयं ठगा गया।' पीताम्बर परिधान, चतुर्भुज शंख-चक्र-गदा-खङ्ग शारंगधारी, श्रीवत्स-भृगुवल्ली वक्ष पर बनाये, कौस्तुभ कण्ठ, वनमाली, बहुमूल्य रत्नाभरणालंकृत पौण्ड्रक को अपने समान रूप में देखकर श्रीकृष्ण भी खूब हँसे। 'तुम्हें पश्चाताप रह जायगा कि तुम अपने अस्त्रों का प्रयोग नहीं कर सके।' श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- 'अतः उनका प्रयोग कर लो।' पौण्ड्रक ने चक्र, गदा दोनों चला लीं और दोनों शारगं के छूटे शरों द्वारा छिन्न हो गये। श्रीकृष्ण का धनुष मेघ से झरते बिन्दुओं के समान शस्त्रवर्षा कर रहा था। बहुत अल्प समय में शत्रुसेना के रथ, अश्व, गज एवं सैनिकों के क्षत-विक्षत, खण्ड-खण्ड अंश वहाँ रक्त-धारा में पड़े थे। पृथ्वी पट गयी शवों से। काशिराज के रथ के अश्व तथा सारथि मारे गये। उनका रथ नष्ट हो गया। श्रीकृष्ण के एक बाण ने उनका मस्तक धड़ से उड़ाया और काशी में राजद्वार के सम्मुख डाल दिया। 'तुमने जिन चिह्नों के त्याग की बात की थी, अब उनका त्याग कर रहा हूँ।' अन्त में जनार्दन ने कहा- 'अब इन्हें सम्हालो।' पौण्ड्रक रथ से कूद न गया होता तो कौमोदकी गदा ने जैसे रथ, अश्व, सारथि को चूर करके एक कर दिया था, पौण्ड्रक की अस्थियाँ भी उनमें मिल गयी होतीं, किन्तु कूदकर भी उसको बचना कहाँ था। श्रीकृष्णचन्द्र ने चक्र उठा लिया था। पौण्ड्रक का सिर छिन्न हो गया। 'धन्य पौण्ड्रक!' दारुक के मुख से निकला। सदा वासुदेव के रूप का-गुण का-स्वभाव का चिन्तन, उनका कृत्रिम वेश- पौण्ड्रक वासुदेवमय हो गया था। उसके शरीर से निकली ज्योति वासुदेव में लीन हो गयी। उसे इस प्रकार सायुज्य देकर श्रीकृष्णचन्द्र द्वारिका लौटे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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