श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
3. द्वारिका
वह बैकुण्ठ का भाग- दिव्यभूमि, श्रीहरि का नित्यधाम द्वारावती। श्रीकृष्णचन्द्र के आदेश से समुद्र ने वहाँ कुछ और भूमि छोड़ दी। विश्वकर्मा ने द्वादश योजन सहस्रपुरी बनायी, किन्तु नगर का भाग बारह योजन लम्बा, आठ योजन चौड़ा था। नगर के दो सिरे समुद्र के समीप थे और दोनों पार्श्वों में दो-दो योजन चौड़े उद्यान, क्रीड़ा-स्थान रखे गये थे। द्वारिका का समीपस्थ प्रदेश उपवनीय भाग नगर से दुगुना था। नगर से आठ महामार्ग थे। सोलह बड़े चौराहे थे। सात महा-राजमार्ग थे। इसके चारों ओर चार पर्वत थे और वे तथा नगर का वाह्योपवन वनों से घिरा था। द्वारिकापुरी में चारों ओर चार महाद्वार रखे गये। जल, अग्नि, इन्द्र तथा पार्थिव ये इन द्वारों के नाम थे। इनके बहिर्द्वार तोरणपर शुद्धाक्ष, ऐन्द्र, भल्लाट एवं पुष्पदन्त की मूर्तियाँ निर्मित हुई। ये द्वार-देवता हुए। भागवान वासुदेव- श्रीद्वारिकाधीश का भवन जो वस्तुतः भवनों का समूह था। चार योजन लम्बा और इतना ही चौड़ा था। महारानियों के पृथक-पृथक भवनों की पंक्तियाँ थीं इसके भीतर। द्वारिका के भवन अनेक रंगों के थे। श्रीकृष्णचन्द्र के भवनों में पीछे जो पटरानियों को दिये गये श्रीरुक्मिणीजी का भवन स्वर्ण वर्ण, सत्यभामाजी का चन्द्रश्वेत, मित्रविन्दा का वैदूर्यमणिका। इस प्रकार कोई पद्मराग वर्ण, कोई नील वर्ण, कोई स्फटिक का था। सभी भवनों के साथ उपासना-गृह, पुष्पोद्यान, सरोवर, कृत्रिम क्रीड़ा पर्वत आदि थे। प्रत्येक भवन ही अपने आप में पूर्ण था और प्रजा के भवन भी इन सब सुविधाओं से युक्त थे। द्वारिकापुरी समुद्र के मध्य में थी। समुद्र के संकीर्ण भाग पर रथों, गजों के गमन के लिए सेतु बनाया गया था। यह ऐसा सेतु था जो चाहे जब उठा लिया जा सकता था। इस प्रकार किसी भी आक्रमणकारी के लिये द्वारिका अत्यन्त दुर्गम दुर्ग था। विश्वकर्मा ने पुरी की स्वच्छता की अदभुत व्यवस्था की थी। उनक अदृश्य रहने वाले सेवक पुरी को रात्रि में स्वच्छ कर देते थे। वे वनों, उपवनों तथा जलाशयों को स्वच्छ रखते थे। सिञ्चन एवं संरक्षण भी वही करते थे। यादव नगर रक्षक एवं दुर्गपाल तो थे हीः किन्तु विश्वकर्मा के सेवक भी अदृश्य रहकर पुरी का रक्षण करते थे। महाराज महाराज उग्रसेन यादव सिंहासनाधीश थे। अनाधृष्ट महासेनापति, विकद्रु प्रधानमंत्री बनाये गये। उद्धव, कडक, विपृथु, श्वफल्क, अक्रूर, चित्रक, गद, सत्यक, पृथु और बलरामजी विविध विभागों के मंत्री संचालक हुए। सात्यकि प्रधान योद्धा तथा दारुक रथसेना के सारथियों के नायक नियुक्त हुए। कृतवर्मा उपसेनापति बनाये गये। द्वारिका में ब्राह्मणों, साधुओं और भगवद्भक्त आराधकों का सर्वत्र अबाध प्रवेश था। श्रीकृष्णचंद्र के अपने अन्तःपुर में जाने में इनको द्वारपाल से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं थी। केवल विशेष समय में विशेष अवसरों पर ही द्वारपाल विनम्रतापूर्वक कारण सूचित करते हुए भीतर न जाने की प्रार्थना कर सकते थे। द्वारिका में अन्न, वस्त्र, जल, फल, गन्ध, पुष्प आदि सब आवश्यक सामग्री- सब प्रसाधन, आभरण कैसे उपलब्ध होते थे, इस ओर किसी नागरिक का ध्यान भी नहीं जाता था क्योंकि कल्पवृक्ष, कामधेनु, चिन्तामणि द्वारिका के लिए श्रीद्वारिकाधीश के रहते सामान्य वस्तुयें बन जाती थीं। ‘ये वासुदेव ही इसे समुद्र को दे देंगे।’ देवर्षि नारद ने प्रारंभ में ही भविष्यवाणी कर दी- ‘इनके धराधाम से स्वधाम जाने पर यहाँ कोई नहीं रह सकेगा।’ यह द्वारिका के साथ लगा अभिशाप; किन्तु नित्यधाम धरा पर सदा कैसे रहेगा वैकुण्ठ जिनके आगमन के लिए धरा पर उतरा, उनके रहने तक ही तो रहने वाला था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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