श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
20. श्रीबलराम की व्रजयात्रा
'राम आये। दाऊ आये।' लकुट फेंक दिये करों से। उष्णीष, पटुके, श्रृङ्ग, छीके, रज्जु जहाँ तहाँ गिरे और तरुण गोपों का समूह दौड़ा- 'दाऊ आये।' श्रीसंकर्षण जब व्रज से लौटकर द्वारिका आये, उन्होंने गोपों का वह उत्साह, वह उमंग, वह वात्सल्य बाबा और मैया का और गोपियों का अनन्त अकूल प्रेम, उनका उलाहना- सब सुनाया। सब सुनाते रहे महीनों तक एकान्त में छोटे भाई को समीप बैठाकर और दोनों भाई रोते रहे। श्रीसंकर्षण व्रज में चैत्र, वैशाख के दो महीने रहकर आये थे और व्रज के उपहार- व्रज की उन स्नेह-मूर्तियों ने सब सुहृदों के लिये उपहार दिये थे। पूछ-पूछकर दिये थे- 'किसके कितनी पत्नियाँ हैं। किसके कितने पुत्र हैं। किसका कितना परिवार बढ़ा है। किसकी कौन सी कन्या कहाँ विवाहित है।' माता रोहिणी- उन्हें श्रीव्रजेश्वरी ने वस्त्राभरण भेजे थे। व्रज की उनकी वे बालिकायें[2] उन्होंने चरण-वन्दन कहा था। माता तो इस द्वारिका के राजसदन में- देवदुर्लभ गृह में भी प्रत्येक उत्सव पर खिन्नमना- उदासीन हो जाती हैं। 'व्रज- उनका व्रज! व्रजवासी और व्रजेश्वरी आज कैसी होंगी? यह चिन्तन माता का जीवन हो गया है। उन्होंने पुत्र को पास बैठाया और सुनती रहीं- व्रज का वर्णन सुनती रहीं। पूछ-पूछकर सुनती रहीं। श्रीबलराम के लिये कई महीने यह चर्चा विह्वल कर देने वाली बनी रही। कभी उनके कक्ष में उनके छोटे भाई आ बैठते और कभी माता रोहिणी आ बैठतीं। अथवा उन्हें अपने यहाँ बुलवा लेतीं। समीप दो में-से कोई बैठा हो- व्रज की चर्चा चल पड़े तो स्नान, भोजन, निद्रा कहाँ स्मरण पड़ती है। कोई दूसरा उस समय वहाँ प्रवेश न प्राप्त कर सके, यह व्यवस्था पहिले कर ली जाती है। दो महीनों में द्वारिका में भी कुछ हुआ- हुई तो कई महत्त्वपूर्ण घटनायें जैसे पौण्ड्रक जैसा सबल शत्रु मारा गया। कृत्यानल से दग्ध होती पुरी बच गयी; किन्तु इनकी चर्चा- इनकी चर्चा तो श्रीबलराम से दूसरों ने की। श्रीकृष्ण मिले और सब भूल गया दोनों भाइयों को। फिर तो व्रज- व्रजवासी और उनमें दोनों तन्मय। महारानियों में- रेवती जी में भी यह उत्कण्ठा तभी से प्रबल हो गयी- व्रज में ऐसा क्या है? इतने विह्वल ये दोनों भाई व्रज का नाम लेते ही क्यों हो जाते हैं? माता रोहिणी से ही पूछा जा सकता है; किन्तु वे तो अत्यन्त उदासीना रहती हैं। वे एकान्त में बैठी रहना चाहती हैं। पुत्रवधुओं की पद-वन्दना का भी उत्तर संक्षिप्त आशीर्वाद में ही देती हैं। आजकल तो वे चाहे जब बड़े पुत्र के समीप बैठ जाती हैं और कक्ष-द्वार पर कोई द्वार-रक्षिका बैठा दी जाती है। उनसे कुछ भी पूछना बहुत कठिन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यहाँ 'श्रीद्वारिकाधीश' में केवल द्वारिका-चरित देने हैं। अतः इस यात्रा का उल्लेख मात्र किया गया। व्रज की घटनाओं का वर्णन 'नन्दनन्दन' में करना है।
- ↑ माता के मन में वे आज भी वैसी ही भोली बालिकायें हैं
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