श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
18. तप-पुत्र प्राप्ति
वृषभारूढ़, त्रिनयन, गंगाधर, नीलकण्ठ, पिंगल, जटाजूट, चन्द्रमौलि, विभूतिभूषित कर्पूरगौर श्रीअंग, अहिभूषण, मुण्डमाली, कृत्तिवास भगवान उमाकान्त ने एक कर में कुश सहित कमण्डलु, दूसरे में प्रज्वलित मशाल, तीसरे में डमरू और चौथे कर में त्रिशूल ले रखा था। भूत-प्रेत-पिशाच; वैताल-प्रमथ-कुष्माण्ड, यत्र-किन्नर मुनिगण, योगिनी-डाकिनी-शकिनी आदि का समूह पीछे चला आ रहा था। भगवान सदाशिव सम्पूर्ण गणों के साथ जयघोष करते आये- 'जनार्दन! आपकी जय हो।' श्रीकृष्णचन्द्र दण्डवत गिरे भूमि पर और चारों करों के उपकरण फेककर भगवान वृषभध्वज कूदे वृषभ से। उन्होंने उठाकर केशव को वक्ष से लगा लिया। अब दोनों के नेत्रों से अश्रुधारा, दोनों का रोम-रोम पुलकित, दोनों का शरीर स्वेद से भीगता जा रहा। गण इस अद्भुत मिलन को शान्त देखते रहे। इन्द्र, कुबेरादि लोकपाल, देवता आ गये इस दिव्य दृश्य का लाभ लेने। देर तक दोनों लिपटे रहे और जब पृथक हुए, दोनों के गद्गद स्वर परस्पर एक दूसरे की स्तुति कर रहे थे। अन्त में श्रीकृष्णचन्द्र ने अर्ध्य पात्र उठाया। पूजन किया भगवान शंकर का। 'आप यहाँ यह क्या करने लगे थे?' सदाशिव ने उलाहना दिया- 'गरुड़ के लिये कैलास-शिखर अपरिचित हो गया है या इन्हें भी वहाँ आने के लिये अनुमति लेनी पड़ती है? आपने यह तपस्या क्यों की?' 'आपके अनुग्रह से देवी रुक्मिणी उत्तम पुत्र पाना चाहती हैं।' श्रीकृष्णचन्द्र ने अंजलि बाँधकर मस्तक झुकाया। 'मुझे मन्मथ पर दया आती है। उसका सुमन सुकुमार शरीर भस्म करके मैंने उसे अनंग बना दिया।' श्रीकृष्णचन्द्र ने फिर प्रणिपात किया। उन्हें उठाकर हृदय से लगाते हुए शंकर जी ने कहा- 'अब आप द्वारिका पधारें। आपके श्रीअंग पर पीताम्बर ही सुशोभित होता है। चीरवस्त्र या दिगम्बरत्व मेरे लिये रहने दें।' श्रीद्वारिकाधीश वहाँ से विदा होकर गरुड़ पर बैठे और उसी दिन द्वारिका आ गये। देवी रुक्मिणी अन्तर्वत्नी हुईं। बड़े हर्ष-उल्लास से द्वारिका में उनके सीमन्तनादि गर्भ-संस्कार सम्पन्न हुए। समय पर उनकी क्रोड़ी में पिता के समान ही एक अतसी कुसुम सुन्दर, कमललोचन, अतिशय सुकुमार शिशु आया। श्रीकृष्णचन्द्र की प्रधान पट्टमहिषी ने पुत्र-रत्न प्राप्त किया। द्वारिका को विश्वकर्मा ने फिर सजाया। महोत्सव का महासागर मानो वहाँ उमड़ पड़ा। सुख के साथ दुःख, जन्म के साथ मृत्यु, संयोग के साथ वियोग, प्रकाश के साथ छाया के समान लगे हैं। इन द्वन्द्वों में एक को पकड़ते ही दूसरे को भोगना अनिवार्य हो जाता है। यही जगती का नियम है। जगन्नियन्ता भी जब जगती में आते हैं, इस नियम की मर्यादा मानकर ही वे भी चलते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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