17. पिशाचोद्धार
'मैं देवाधिदेव महेश्वर की आज्ञा से आया हूँ। प्रभु ने बतला दिया है कि पश्चिम समुद्र तट पर सुप्रसिद्ध द्वारिकापुरी में इस समय पुरुषोत्तम श्रीहरि निवास करते हैं। अपने अनुचरों के साथ हम उनका दर्शन करने चले हैं। तुम भी इच्छानुसार जा सकते हो। वे केशव यदुवंश में ही अवतीर्ण हुए हैं और तुम यदुवंशी हो, अतः हम तुम्हारा सम्मान करते हैं। आधी रात हो गयी। यह हम पिशाचों का आराधना काल है। तुम जहाँ चाहो वहाँ चले जाओ। हमसे तुम्हें कोई भय नहीं है।'
भगवान शिव के सेवक, उनके आदेश से आये पिशाच के लिये कोई तपोवन अगम्य कैसे बन सकता है। वह सबके लिये दुर्धर्ष हैं, यह स्पष्ट था और उसकी नारायण-निष्ठा-भक्ति? लेकिन भक्ति देवी तो जाति, वर्ण, कुल, आचार, आहार, कर्म नहीं देखा करतीं। वे किसी के हृदय में प्रकट हो सकती हैं। वे हृदय में आ जायँ, जनार्दन दूर रहेंगे उससे?
वह भगवान क्या जो पिशाच पर भी प्रसन्न न हो सके और उसे अपना न सके। पिशाच उसी की सृष्टि नहीं है? 'स्वधर्ममाराधनमच्युतस्य' और पिशाच का स्वधर्म- घण्टाकर्ण स्वधर्म में ही तो स्थित था। श्रीकृष्ण कहीं गये नहीं। उठे नहीं। वहीं शान्त बैठे रहे।
पिशाच अपनी अर्धरात्रिकालीन आराधना में अपने ढ़ंग से लग गया। उसकी आराधना भूखे पेट संभव नहीं। बहुत-सा रक्त पीकर उसने कच्चा माँस खाया वहीं। तब आँतड़ियों का पाश रख दिया। जल से आचमन करके, कुशासन बिछाया। उसे जल छिड़ककर आसन-शुद्धि की। कुत्तों को दूर हटाया और आसन पर बैठकर स्तुति करने में लगा नेत्र बंद करके- 'देव देव जनार्दन! मेरा मन प्रतिक्षण आप में लगा रहे! मेरे मन का कल्मष आप नष्ट कर दो! आप में मेरी अविचल भक्ति हो! मुझ अधम पर दया करो दयामय!'
स्तुति करते-करते पिशाच का कण्ठ गद्गद हो गया। नेत्रों से अश्रुप्रवाह चला। शरीर में रोमांच हुआ और वह समाधिस्थ हो गया। नासिकाग्रह पर स्थिर दृष्टि, प्रणव के जप में अचंचल प्राण। उसके हृदय में आज चतुर्भुज वनमाली जनार्दन प्रकट हो गये।
पिशाच ध्यान से जागा और सम्मुख श्रीकृष्णचन्द्र को देखकर नृत्य करने लगा- 'यही हैं! यही हैं नारायण! ये भक्तवत्सल ही हृदय में प्रकट हुये थे। मुझ अधमपर दया करने ये यहाँ पधारे हैं!'
वह नाचता था, कीर्तन करता था, रोता था और बार-बार श्रीकृष्ण के चरणों में लोट जाता था।
कुछ काल में सावधान हुआ। अर्चा करने की उसे सूझी। लाये शवों-में-से एक शव में-से एक मांस खण्ड काटकर उसे जल से धोया। पत्ते पर उसे रखकर श्रीकृष्णचन्द्र को निवेदित करके हाथ जोड़कर बोला- 'मेरे स्वामी! यह हम पिशाचों के लिये दुर्लभ तुरन्त के मारे पवित्र संस्कार वाले ब्राह्मण के शव का मांस है। पिशाचों का यह उत्तम आहार है। आप इसे ग्रहण करें!'
'यदन्नं पुरुषो भवति तदन्नं तस्य देवता ।'
जो अपना प्रिय आहार है, वही तो आराधक अपने आराध्य को निवेदित करेगा। पिशाच कहाँ भक्ति की शुद्धाचारिता का अधिकारी था कि उसे परिचित होता।
'यह तो हमारे स्पर्श करने योग्य भी नहीं है।'
श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- 'इस ब्राह्मण को जीवित होने दो।'
|