श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
15. सुभद्रा-हरण
'सुभद्रा! अर्जुन के हृदय में झंकार उठी थी। श्रीकृष्णचन्द्र की उस तन्वंगी अनुपम लावण्यमयी बहिन ने पहिले ही उनके हृदय में स्थान बना लिया था और अब तो बात का दूसरा महत्त्व बहुत बड़ा हो गया था। सुभद्रा श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय है, और वह भी श्रीकृष्ण को ही सब कुछ मानती है। श्रीकृष्ण कितने प्रेमपरवश हैं, यह अर्जुन से अधिक कौन जानेगा। सुभद्रा दुर्योधन के यहाँ जाती है तो श्रीकृष्ण गये- नहीं; श्रीकृष्ण को छोड़कर पांडव कहाँ, किसके होंगे। दुर्योधन तो पांडवों का जन्मजात शत्रु है। उसके साथ सुभद्रा का विवाह? श्रीकृष्ण चले जायेंगे उस पक्ष में- नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिये। सुभद्रा को प्राप्त करना पड़ेगा। 'श्रीसंकर्षण का विरोध?' उन अनन्त का विरोध करने की बात तो कोई मूर्ख ही सोचेगा; किन्तु सुभद्रा? सुभद्रा का अर्थ है तो अब श्रीकृष्ण है और श्रीकृष्ण का अर्थ है पांडवों का सर्वस्व। अर्जुन को कोई उपाय नहीं सूझता; किन्तु उन्हें अपने सखा के सौहार्द पर, प्रीति पर, औदार्य पर पूरा विश्वास है। उन्हें विश्वास है कि श्रीकृष्ण उनकी सहायता से कभी विमुख नहीं हो सकते। श्रीकृष्ण ने ही सदा पांडवों के संकट में मार्ग दिया है। वे अब भी मार्ग देंगे। श्रीसंकर्षण को रुष्ट किये बिना, चौंकाये बिना श्रीकृष्णचन्द्र तक अपने हृदय की बात पहुँचा देनी है और उनके अनुग्रह की प्रतीक्षा करनी है। प्रतीक्षा ही की जा सकती है उनके अनुग्रह की। अर्जुन ने त्रिदण्डी यति का वेश बनाया। इसमें एक सुविधा थी- त्रिदण्डी यज्ञोपवीत और शिखा का त्याग नहीं करते। धनंजय, शिखा-सूत्र त्याग कर धर्मच्युत होने की बात सोच नहीं सकते थे। वे अपना नित्यकर्म, सन्ध्यादि करते रहेंगे। विधिपूर्वक त्रिदण्ड लिया नहीं है- यह तो नाटक के अभिनय जैसा है। इस वेश में वे द्वारिका गये और रैवतक गिरि पर रहने लगे। 'अत्यन्त सुन्दर श्यामवर्ण तेजस्वी त्रिदण्डी यति पधारे हैं रैवतक पर।' द्वारिका के लोगों का क्रीड़ा-महोत्सव सब रैवतक पर ही होते थे। अतः द्वारिकावासियों में यह समाचार शीघ्र फैल गया। लोग दर्शनार्थ आने लगे। नगर मे यतिराज आमन्त्रित होने लगे। 'आप यहाँ इस रूप में? उद्धव, सात्यकि जैसे लोगों की दृष्टि को धोखा नहीं दिया जा सकता था। उन्होंने पहिचाना और एकान्त में पूछ लिया।' 'श्रीद्वारिकाधीश की शरण आया हूँ।' अर्जुन ने शान्त स्वर में अनुरोध किया- आप किसी से परिचय नहीं देंगे तो अनुग्रह होगा। श्रीकृष्णचन्द्र न जानते हों, यह न बन सकती थी और न किसी ने यह सोचा ही। वे धनंजय से मिल गये। अर्जुन को उनसे क्या छिपाना था। उन्होंने कह दिया- 'पांडव केवल तुम्हारे ही चरणाश्रित हैं।' 'अवसर की प्रतीक्षा करो।' श्रीकृष्णचन्द्र हँसे- 'क्षत्रियों में कन्या-हरण धर्मसम्मत है। इसमें कन्यापक्ष का कोई अपमान नहीं है। मैंने जो कार्य बार-बार किया है, वही मेरे साथ किया जाये तो मैं उसे अनुचित क्यों मानूँ और उस पर रोष क्यों करूँ।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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