श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
14. परिहास-प्रिय
'कमललोचन! आप ठीक कहते हैं कि मैं आप भूमा के लिये समान नहीं हूँ। कहाँ आप निखिल लोकमहेश्वर, अपनी महिमा में स्थित परमपुरुष और कहा मैं आपके चरणाश्रिता गुणमयी प्रकृति।' 'यह भी ठीक है कि त्रिगुणों से डरे हुए- के समान आप आत्मा अन्तःकरण के समुद्र में सोते हैं- केवल अनुभव स्वरूप हैं। सदा ही असदिन्द्रियों से आपकी शत्रुता है। राज्यपद तो अन्ध:तम में ले जाने वाला है, उसे तो आपके सेवकों तक ने त्याग दिया है।' 'आपके चरण-कमल-मकरन्द के आस्वादक मुनियों का मार्ग ही ये द्विपाद पशु समझ नहीं पाते, तो आपका पथ कोई कैसे समझेगा। आप ईश्वर की चेष्टा अलौकिक की भाँति तो होगी ही। आपके भक्तों की चेष्टा भी अलौकिक होती है।' 'आप निष्किंचन हैं; क्योंकि आपके स्वरूप से बाहर कुछ है ही नहीं। देवता भी आपको विनम्र सोपहार प्रणति अर्पित करते हैं। सृष्टिकर्ता और प्रलयंकर भी आपके सेवक ही हैं। संसार के ये प्राणों के तर्पण में लगे धनमदान्ध लोग आपको जान ही कैसे सकते हैं।' 'आप समस्त पुरुषार्थ स्वरूप समस्त फलों के परम फल हैं। आपको पाने के लिये धन्यजन अपना सर्वस्व त्याग देते हैं। उन्हीं के लिये आपकी उपलब्धि उचित है। जो स्त्री-पुरुष संपर्क के छुद्र सुख में मग्न हैं, उन्हें यह कहाँ सुलभ है।' 'न्यस्तदण्ड महामुनियों ने आपका गुणगान किया कि 'आप अपने आपको भी दे देने वाले हो।' अतः आपका मैंने वरण किया। वे सामान्य भिक्षुक तो नहीं थे। आप कालस्वरूप के भूरभंग से जिनकी आशायें ध्वस्त होती रहती हैं उन रुद्र, ब्रह्मादि को भी मैंने छोड़ दिया था- दूसरों की चर्चा क्यों करते हैं आप।' 'गदाग्रज! बस यह बात आपकी ठीक नहीं है- मुझे मूर्ख बनाने के लिये कही गयी कि आप जरासन्धादि के भय से समुद्र में शरण लिये छिपे हैं। यह तो मैंने प्रत्यक्ष देखा है कि अपने धनुषों से उन सबको भगाकर जैसे श्रृगालों के मध्य से वनराज अपना भाग ले जाय, वैसे आप मुझे ले आये।' 'पृथु, अंग, ऋषभ, भरत, ययाति, गय आदि नृपाल चूड़ामणि जिनकी कृपा पाने के लिये एकछत्र पृथ्वी का राज्य त्यागकर वन में तप करने गये, उन कमलनयन आपके चरणों के आश्रय में जो यहाँ स्थित हैं, वे क्या दुःख पाते हैं?' 'आपके त्रिपातहारी श्रीचरणों की गन्ध का आस्वादन करके दूसरे किसका आश्रय लिया जाय। आप गुणगणैकधाम, आपके ये श्रीचरण नित्य रमालय- इनके आश्रित के लिये तो इस लोक-परलोक- दोनों में मंगल ही मंगल है। आप मेरे सर्वथा अनुरूप हैं। हाँ और परलोक में भी मेरी समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले है। अतः मैंने आपका आश्रय लिया। जन्म जन्म में जहाँ भी मैं जाऊँ, आपके यही श्रीचरण मेरे रक्षक रहें, जो भजन करने वाले को मिथ्या से छुड़ाकर अपवर्ग प्रदान करते हैं।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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