श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
2. उपक्रम
अनुभव, साक्षात्कार, ज्ञान होना आदि कहते ही व्यष्टि-व्यक्ति उपस्थित हो जाता है- वह व्यक्ति जिसे अनुभव या साक्षात्कार हुआ। व्यक्ति अन्तःकरण होगा, तत्त्व नहीं हो सकता। तब तत्त्व? तत्त्व में मन, बुद्धि वाणी की गति नहीं है। इस प्रकार परमार्थ का निरूपण बहुत किया गया है, किन्तु इससे जीवन की समस्या का समाधान नहीं होता। मूल समस्या यह है कि आप सुख स्वरूप हैं, किन्तु दुःख आपको अपने स्वरूप में रहने नहीं देता। यह दुःख ही है जिसकी आत्यन्तिक निवृत्ति के लिए सब आध्यात्मिक मार्ग हैं। सब मार्ग हैं- इतना आप स्मरण रखेंगे तो भ्रम में नहीं पड़ेंगे। द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैतादि जितने भी दर्शन है- सब मार्ग हैं, किसी-न-किसी मार्ग के पोषक, प्रतिपादक। मार्ग कहीं पहुँचने के लिए होता है। मार्ग ही लक्ष्य नहीं हुआ करता। लक्ष्य क्या है? ब्रह्मा, परमात्मा? नहीं। जब आप ऐसा कुछ लक्ष्य मानते हो तभी भ्रम में पड़ते हो। तभी मार्ग में श्रेष्ठ-कनिष्ठ का विवाद एवं संघर्ष आरम्भ होता है। जब एक अद्वय तत्त्व है तो वह स्वयं आप हो। वह लक्ष्य क्या और उसे पाना क्या? तब लक्ष्य? लक्ष्य है दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति। दुःख क्या है? क्यों है? दुःख इसलिये है कि ‘कार्यकरण कर्तृत्व’ में हेतु प्रकृति थी, किन्तु इसमें आपने अपने में कर्तत्त्व ले लिया और फलतः आपमें दुःख का भोक्तृत्व आ गया। सुख का भोक्तृत्व तो भ्रमवश जान पड़ रहा है क्योंकि सुख तो आपका स्वरूप है। बहुत सीधे शब्दों में कहें तो देह में, अन्तःकरण में, परिच्छिन्न भौतिक व्यक्तित्व में अभिमान करके आबद्ध होना ही दुःख का हेतु हैं। अतः साधना मात्र का उद्देश्य उस दुःख के हेतु-भूत भौतिक देहाभिमान एवं उससे बने व्यक्तित्व का उच्छेद करना है। प्रत्येक दर्शन इस प्रकार के साधनों में से किसी-न-किसी को पुष्ट करने के लिये है- वह उस साधन का ही अंगभूत है। उसे साधन से पृथक करके देखना ही असंगत है। प्रत्येक दर्शन दुःख के हेतुभूत परिच्छिन्न भौतिक व्यक्तित्व के उच्छेद का मार्ग प्रशस्त करता है, इतना आप मान लें तो दर्शनों में से किसी से अपनत्व करके शेष के खण्डन-मण्डन में पड़ने से बच जाते हैं। तथ्य अवाड्.-मनस गोचर है, अतः उसका विवेचन क्या? अब यहीं श्रुति शास्त्र पर अनिवार्य श्रद्धा का प्रश्न आता है। बौद्धिक विवेचन, बुद्धि-शास्त्र निष्ठावान हो तो निर्गुण अद्धय तत्त्व तक और शास्त्र-निष्ठाहीन हो तो बौद्ध शून्य तक पहुँचा देगा; किन्तु यह विवेचन केवल वैराग्यवान साधक को लक्ष्य प्राप्ति का हेतु बनेगा। जिसमें देहासक्ति, भोगासक्ति का लेश भी है, वह प्रपञ्च के मिथ्यात्व का निश्चय करने लगेगा तो आन्तरिक प्रवृत्ति उसे अधिक अनियन्त्रित वासना का दास बना देगी और वह लक्ष्य-भ्रष्ट हो जायेगा। भूलिये मत कि लक्ष्य दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति है और काम, क्रोध, मद, मत्सर, राग-द्वेष, लोकेषणा में से किसी किञ्चित भी अवशेष अन्तःकरण में है तो दुःख की निवृत्ति नहीं हुई। दुःख के यही हेतु हैं। यह भी मत भूलिये कि साधनमात्र ब्रह्म, परमात्मा या जीव के दुःख निवृत्ति के लिये नहीं है। इनमें तो दुःख है ही नहीं। अन्तःकरण के दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति लक्ष्य है- यह स्मरण रखना चाहिये। ‘निर्विष्णानां ज्ञानयोगो न्यासिनामिह कर्मसु।’[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागव गीता 11.20.7
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