श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
6. जाम्बवती-मंगल
जाम्बवान को आश्चर्य था- कौन है यह? लेकिन उनका क्रोध बढ़ता जा रहा था। उनके शरीर पर पड़ने वाली प्रत्येक मुष्टि का बहुत कठिन, बहुत पीड़ादायक थी। लगता था कि मांस, स्नायु और अस्थि तक कुचल उठी हो। एक क्षण का विराम किये बिना पूरे अट्ठाइस दिन-रात यह मुष्टि का युद्ध चलता रहा। जाम्बवान शिथिल पड़ने लगे। उनका उछलना और गर्जना करना बन्द हो गया। उनकी गुर्राहट घट गयी। उनको लगा कि शरीर का अंग-अंग, एक-एक पेशी, एक-एक स्नायु-बंधन टूट रहा है। पूरा शरीर भारी मुष्टि-प्रहार से कुचला जा चुका है। अस्थियाँ तक आहत हो गयी हैं। अब और नहीं- अब और आघात सहन नहीं किया जा सकता। अब मूर्छा आयी- अब नेत्रों के आगे चिनगारियाँ उड़ने लगीं। पूरी शक्ति एकत्र करके दोनों हाथों की मुट्ठियां बाँधकर उछलकर श्रीकृष्णचन्द्र के वक्षस्थल पर आघात किया जाम्बवान ने और चीत्कार करके चरणों पर गिर पड़े। आघात तो आवेश में हो गया; किन्तु आघात के साथ वक्षस्थल पर दृष्टि चली गयी। 'यह श्रीवत्सांकित, भृगुलताभूषित वक्ष! जाम्बवन्त के लिये यह वक्षस्थल भी क्या अपरिचित है। वे सीधे गिरे चरणों पर- मेरे स्वामी! क्षमा ........' जाम्बवान उन चरणों को छोड़कर उठना ही नहीं चाहते थे; किन्तु झुककर विशाल बाहु में भरकर प्रभु ने सदा की भाँति उठाकर वक्ष से लगा लिया। 'प्रभु पधारे!' जाम्बवान गद्गद कण्ड बोल नहीं पा रहे थे। 'मैं तो इस मणि की शोध में निकला था। इसी के लिये यहाँ आ गया।' श्रीकृष्णचन्द्र हँसे- 'इसे लेकर मुझ पर लांछन लगा है। मणि जिसकी है, उसे देकर वह लांछन दूर करना है मुझे।' 'यह मणि तो मैंने सिंह को मारकर प्राप्त की है।' जाम्बवान ने मणि की ओर देखा। उन्हें लगता ही नहीं है कि उनके ये आराध्य युगों के पश्चात मिले हैं। उन्हें तो ऐसा ही लगता है कि अभी-अभी कुछ क्षण पीछे ही वे अपने प्रभु के श्रीचरणों में पुनः बैठ गये हैं और उन परमोदार से संकोच कैसा। इन्होंने सदा सम्मान ही दिया है जाम्बवान को। अतः मणि पर अपना स्वत्व प्रकट करके उन रीछपति ने कहा- 'प्रभु जब इस रीछ के बिल को धन्य करने पधारे हैं तो यदि इसकी अर्चा स्वीकार करें, मणि उस अर्चा का उपहार बन सकती है।' श्रीकृष्णचन्द्र कैसे कह देंगे कि मणि पर अब जाम्बवान का स्वत्व नहीं है। इस अपने नैष्ठिक सेवक से बलपूर्वक मणि छीनी भी कैसे जा सकती है। इतनी भूमिका और 'यदि' जिसके साथ है, वह अर्चा सामान्य तो नहीं होगी। सामान्य अर्चन तो जाम्बवन्त कर ही रहे हैं। उन्होंने चरण धो लिये हैं और अब माल्य, चन्दन- ये न भी हों उनकी गुफा में तो कन्द-मूल-फल स्वीकार करने के लिये तो आग्रह की आवश्यकता नहीं है। 'आपकी इच्छा पूर्ण हो।' श्रीकृष्णचन्द्र ने सस्मित कह दिया। जाम्बवन्त उठे और अपनी कन्या को ले आये- 'हम पशुओं में कोई औपचारिक कृत्य आवश्यक नहीं होता। आप इसका कर-ग्रहण कर लें और मणि के साथ इसे भी अपनी सेवा मे स्वीकार करें।' 'आप उपदेव, सृष्टिकर्ता के मानसपुत्र, आप ब्राह्म-विवाह भी कर रहे हैं इस विनम्रता से।' श्रीकृष्णचन्द्र ने जाम्बवती का पाणि-ग्रहण किया- 'आपके इस संबंध से मैं सम्मानित हुआ।' मणि इस कन्या-दान का दहेज बनकर मिली श्रीकृष्णचन्द्र को। जाम्बवन्त ने कोई और औपचारिकता नहीं की। गुहा के द्वार तक वे केवल पहुँचाने आये। अपने को वे अपने इन आराध्य का नित्य सेवक ही समझते रहे हैं, अतः इनके साथ औपचारिकता क्या। जाम्बवान ने तो फिर नहीं देखा पुत्री की ओर भी। वह आराध्य के चरणों में अर्पित हो गयी- उनकी हो गयी- जाम्बवान निश्चिन्त हो गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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