श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
91. उपसंहार
माता रोहिणी स्वयं बहुत विह्वल हो उठीं उस समय की स्मृति से किन्तु सभी श्रीकृष्ण पत्नियों का आग्रह था कि माता जितना जानती हैं, उतना ही सुना दें। अन्त में एक उपाय निकाला माता ने ही। सुभद्रा जी को भवन के द्वार पर नियुक्त किया कि वे इस समय किसी को भी भीतर न आने दें। अपने भाइयों को भी बाहर ही रोकें अथवा लौटा दें। श्रीवसुदेव जी अथवा कोई माता आना चाहें तो भी उन्हें अपने स्नेहाग्रह से रोक लें। ऐसा काम केवल सुभद्रा ही कर सकती थीं। बहिन सुभद्रा द्वार पर खड़ी हो गयीं। भीतर माता रोहिणी ने किसी प्रकार वह व्रज-क्रीड़ा की चर्चा प्रारम्भ की। सहसा बलराम-श्रीकृष्ण दोनों भाई माता से मिलने आ गये। बहिन ने दोनों भुजाएँ फैलाकर दोनों भाइयों को द्वार पर ही रोक दिया। अब दोनों भाई द्वार की ओर पीठ करके बहिन के दोनों ओर खड़े हो गये। माता रोहिणी ने चर्चा बड़े संकोचपूर्वक प्रारम्भ की थी किन्तु शीघ्र ही वे स्वयं आत्म-विस्मृत हो गयीं। उनकी पूरी बात तो द्वार पर से सुनी जा सकती नहीं थी किन्तु जब भाव-विह्वलता में स्वर कुछ ऊँचा हो जाता था तब कुछ बातें कानों में पड़ जाती थीं। श्रीबलराम-श्रीकृष्ण परस्पर अभिन्न चिदानन्दघन विग्रह और बहिन सुभद्रा साक्षात योगमाया। इन तीनों का वह चिन्मय शरीर व्रज की रसकथा के श्रवण से रोमांचित हुआ और फिर द्रवित होने लगा। जैसे-जैसे श्रवणों में पड़ती गयी, शरीर के अवयव द्रवित होते चले गये। अचानक देवर्षि नारद आ पहुँचे। उन्होंने व्रज -प्रेम की चर्चा से द्रवित, विकृत तीनों का यह स्वरूप देखा तो हर्ष-विह्वल होकर वीणा बजाते हुए नृत्य करने लगे। अब तीनों का ध्यान देवर्षि की ओर गया। उनके श्रीअंग पूर्ववत स्वस्थ होने लगे। देवर्षि ने शीघ्रतापूर्वक प्रार्थना की- 'आप तीनों इसी रूप में सदा विराजमान रहें। आप कितने प्रेम-परवश, प्रेममय हैं और आप तीनों के ही श्रीविग्रह प्रेमचर्चा से ही किस प्रकार द्रवित होते हैं, यह प्राणियों को प्रत्यक्ष होना चाहिए। तब वे समझ सकेंगे कि जिनका श्रीअंग तक प्रेम से द्रवित हो जाता है, उनका हृदय कितना शीघ्र द्रवित होगा। आपका यह स्वरूप मनुष्यों के मन में आपके अनन्त करुणा-वरुणालय रूप का उद्बोधन करेगा।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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