श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
1. अपनी बात
श्रीमद्भागवत में गोलोक का वर्णन नहीं है। गोलोक में शापादिका संकेत भी नहीं है। साथ ही कुरुक्षेत्र के ग्रहण स्नान के समय वहाँ भीष्म, द्रोण, विराट आदि की उपस्थिति नाम लेकर बतलाई गयी है। अतः मानना पड़ता है कि श्रीमद्भागवत में जिस कल्प की कथा है, उसमें यह मिलन महाभारत-युद्ध से पहिले हुआ। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के पश्चात ही द्यूत-क्रीड़ा हुई। उसमें हारकर पाण्डव वन में चले गये। बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का गुप्तवास करके महाभारत का युद्ध हुआ। अतः महाभारत-युद्ध से पूर्व मिलन हो तो उसे राजसूय से भी पूर्व होना चाहिए। देवी द्रौपदी ने कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण -पत्नियों से उनके विवाह के संबंध में पूछा। राजसूय-यज्ञ में भी सब श्रीकृष्ण-पत्नियाँ इन्द्रप्रस्थ चली गयी थीं। द्रौपदी का विवाह के विषय में पूछना सूचित कर रहा है कि वे श्रीकृष्ण-पत्नियों से पहिली बार मिली हैं। यह बात भी राजसूय से पूर्व ग्रहण-स्नान सूचित करती है। ग्रहण स्नान के समय वसुदेव जी से मिलने पर देवी कुन्ती ने अपने इस भाई को उलाहना दिया - ‘ आर्य भ्रातरहं मन्ये आत्मानमकृताशिषम्। धर्मराज युधिष्ठिर श्रीकृष्णचन्द्र की कृपा से राजसूय यज्ञ करके सम्राट हो चुके तब यह उलाहना देना संगत होगा या कौरव मारे जा चुके, पाण्डवों का राज्य ‘निष्कंटक’ हो गया, तब यह उलाहना दिया जा सकेगा? अतः यह मानना पड़ेगा कि श्रीमद्भागवत में कल्प-भेद की कथा है और जिस कल्प की कथा है, उसमें सौ वर्ष के शाप जन्य वियोग का कोई प्रतिबंध नहीं है। श्रीमद्भागवत के अनुसार राजसूय-यज्ञ से पूर्व ही कुरुक्षेत्र में स्नान के समय व्रज के लोगों का श्रीकृष्णचन्द्र से मिलन हुआ है। क्योंकि इस चरित का मूलाधार श्रीमद्भागवत को मान कर चल रहा हूँ- गोलोक एवं उसकी घटनाओं का उल्लेख नहीं कर रहा हूँ- अतः कुरुक्षेत्र के ग्रहण के समय का वर्णन श्रीमद्भागवत के अनुसार ही मुझे करना चाहिये था। जिस ग्रन्थ में यह परिणय द्वारिका में कहा गया है, उसी में मथुरा से श्रीकृष्ण के रुक्मिणी के अधूरे स्वयम्बर में जाने का भी वर्णन है। यहाँ असंगति है। बड़े भाई के विवाह से पूर्व छोटा भाई विवाह करे तो वह ‘परिवेत्ता’ कहा जाता है। श्रीकृष्ण 'परिवेत्ता' होने को प्रस्तुत हो गये- यह दोष निराधार है। अतः रेवती जी का विवाह मथुरा में ही हुआ, यह अधिक संगत है।
मैंने जो क्रम दिये, थोड़े-बहुत परिवर्तन किये, वे ठीक ही हैं, ऐसा मैं नहीं मानता। उनमें भूल होगी, बड़ी भूल होना भी संभव है। मुझे वैसा ठीक लगा है- केवल इतना ही कह सकता हूँ। मनुष्य अपूर्ण है, त्रुटि उससे सदा सम्भाव्य है। लेकिन मैंने अपने चिंतन के लिये लिखा यह चरित और ईमानदारी से मुझे जैसा लगा वैसा लिखा।
श्याम अनन्त अनन्त गुणार्णव, चरित अनन्त अपार। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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