श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
88. विदा
मधुसूदन ने अपने वाम पाद-तल में पूरे फल चुभे बाण की ओर संकेत करके कहा- 'अब तुममें से किसी को भी द्वारिका में कुछ क्षण भी नहीं रुकना चाहिए। मैं जैसे ही पृथ्वी का त्याग करूँगा, समुद्र द्वारिका को डुबा देगा। अपना सब परिवार लेकर शंखोद्वार में जो लोग हैं उनमें जो बच जायँ उन सबके साथ अर्जुन को लेकर तुम सब लोग इन्द्रप्रस्थ चले जाओ।' कर्तव्य बहुत निष्ठुर होता है और व्यक्ति कर्तव्यनिष्ठ हो तो उसको कर्तव्य की प्रेरणा मरते समय भी आवश्यक कर्तव्य को पूर्ण करने की शक्ति दे देती है। दारुक को कर्तव्य की प्रेरणा ने शक्ति दी। उसके स्वामी एक पद भी चलने की स्थिति में नहीं- यह वह देख रहा है। रथ रहा नहीं और द्वारिका डूब जाने वाली है। स्वामी के आदेश का सदा का वह पालन कर्ता, उसे स्वामी ने अन्तिम आदेश दिया है। उसे द्वारिका तथा शंखोद्वार में स्थित लोगों को समाचार देना है। उनकी रक्षा करनी है। यह कर्तव्य तो उसे पालन करना ही है। अतः अपने स्वामी के चरणों में मस्तक रखकर वह चल पड़ा, बिना एक शब्द बोले वह सेवक, सच्चा सेवक चल पड़ा। कैसे लौटा, कैसे गया? यह वर्णन करना लेखनी की शक्ति सीमा में नहीं है। दारुक के जाते ही भगवान श्रीकृष्ण द्वैपायन वेदव्यास जी के सखा, अन्तरंग सुहृद महर्षि मैत्रेय अकस्मात घूमते, यात्रा करते वहाँ आ गये और उनके लगभग साथ ही आये उद्धव। उद्धव बद्रीनाथ जाने को द्वारिका से चले थे और जा नहीं सके थे। श्रीकृष्णचन्द्र का वियोग असहय था उनके लिए। उन्होंने जैसे ही सुना, द्वारिका के सब लोग प्रभास जा रहे हैं, वे भी प्रभास की ओर चल पड़े और बिना रुके रात्रि में भी चलते रहे किन्तु दूसरे सब रथ से आये थे और उद्धव को पैदल आना था। वे प्रभातकाल में श्रीकृष्ण के समीप पहुँचे। श्रीकृष्णचन्द्र उठने की स्थिति में नहीं थे। उन्होंने वैसे बैठे-बैठे ही मस्तक झुकाकर हाथ जोड़कर महर्षि मैत्रेय को प्रणाम किया और उद्धव की ओर प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखा। उनके समीप ही मैत्रेय जी बैठ गये। उद्धव चरणों के समीप बद्धांजलि साश्रुनेत्र बैठे। वे मधुसूदन गम्भीर वाणी में बोले- 'उद्धव! मैं जानता हूँ कि तुम अष्टवसुओं में से एक हो और भगवान ब्रह्मा के सत्र में उपस्थित होकर मेरा सान्निध्य प्राप्त करने के लिए तुमने सांग सम्पूर्ण यज्ञ किया था। सृष्टिकर्ता के प्रसाद से तुम्हें यहाँ मेरा परिकरत्व प्राप्त हुआ, अतः इसे छोड़ना तुम्हारे लिए अत्यन्त कठिन हो रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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