श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
87. व्याध पुरस्कृत
शंख, चक्र, गदा, पद्म, शारंग, धनुष, नन्दक, खड्ग, अक्षय तूणीर- उनके सब आयुध मूर्तिमान उनके आस-पास स्थिर स्थित थे। यह देखकर जरा को और कुछ नहीं सूझा। वह दौड़ता आया और सम्मुख भूमि पर गिर पड़ा। अत्यन्त कातर होकर घुटनों के बल बैठकर हाथ जोड़कर उसने रोते-रोते कहा- 'मधुसूदन! मुझ पापी ने यह अपराध बिना जाने ही किया है। आप उत्तम श्लोक के प्रति यह घोर कृत्य मुझसे हो गया। मुनिगण, महर्षि भी जिनका स्तवन करते हैं जिनका स्मरण मेरे जैसे पापजीवियों को भी पवित्र कर देता है, उसी का ऐसा उपकार मैंने कर डाला। मैं पापिष्ठ पशुघाती हूँ। आप मुझे अभी शीघ्र मार दीजिये, जिससे मैं जीवित रहकर फिर इस प्रकार किसी भी सत्पुरुष का अपराध न कर सकूं। 'जरा! डरो मत! उठो!!' श्रीकृष्णचन्द्र ने उस व्याध को स्नेह पूर्वक आश्वासन दिया- 'तुमने तो वही किया है जो मैं चाहता था। मेरी आज्ञा से तुम पुण्यात्माओं के स्थान स्वर्ग को सशरीर प्राप्त करो।' सशरीर स्वर्ग प्राप्त करने के लिए ययाति ने यज्ञ किया था और महर्षि विश्वामित्र ने अपनी अपार तप शक्ति व्यय करके उन्हें भेजा भी तो सुरों ने उन्हें वहाँ से नीचे फेंक दिया और वही स्वर्ग इस व्याध को, अपने चरण में बाण मारने वाले व्याध को श्रीकृष्णचन्द्र ने सहज प्रदान कर दिया। अपराधी को क्षमा कर देने वाले महापुरुष बहुत हुए हैं और होंगे किन्तु अपराधी को ऐसा पुरस्कार देकर पुरस्कृत तो पुरुषोत्तम ही कर सकते हैं। सहसा गगन से ज्योतिर्मय विमान उतरा। दिव्य देव पार्षद उसमें से उतरकर हाथ जोड़े खड़े हो गये। जरा का शरीर सहसा देवोपम सुन्दर, दिव्य हो गया। उसने श्रीद्वारिकाधीश की तीन बार परिक्रमा की और उनके चरणों में प्रणिपात किया। उनकी आज्ञा को स्वीकार करके विमान में बैठा। विमान लेकर वे देव पार्षद स्वर्ग चले गये। एकाकी, परिवारहीन व्याघ सशरीर स्वर्ग चला गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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