श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
84. उद्धव को उपदेश
श्रीकृष्णचन्द्र ने उद्धव को विस्तार से विवेक, वैराग्य, भोगों की अनित्यता समझा कर बतलाया- 'जब तक गुण वैषम्य है, तभी तक आत्मा में नानात्व की प्रतीति है और यह नानात्व की प्रतीति ही पारतन्त्र्य, जन्म-मरण का हेतु है। जब तक परतन्त्रता है, तब तक भय है।' उद्धव ने पूछा- गुणों में वर्तमान रहते भी देही कैसे शरीर धर्मों से आच्छादित नहीं होता, उनसे बँधता नहीं और कैसे बँधता है?' इसका उत्तर देते हुए केशव ने आत्मा का स्वरूप निरूपण किया कि- 'यह दृश्य प्रपंच माया से स्वप्न के समान प्रतीत हो रहा है। इसमें गुण-दोष दृष्टि ही अनर्थकारी है। अतः किसी की स्तुति या निन्दा मत करो। वस्तु, व्यक्ति अथवा क्रिया में स्तुति या निन्दा करके राग-द्वेष के द्वारा बन्धन की प्राप्ति होती है। अतएव गुण-दोष दृष्टि ही दोष है। इस दृष्टि को त्याग कर समत्व में स्थित हो।' श्रीकृष्णचन्द्र ने इस समत्व की प्राप्ति के लिए सत्संग, भगवत्कथा श्रवण, नामस्मरणादि भक्ति का उपदेश किया। परमार्थ-जिज्ञासु के आचरण, संयमादि को समझाया। अन्त में कह दिया- 'सत्संग का प्रभाव समस्त साधनों से प्रबल एवं अमोध है। सत्संग से ही भक्ति, सद्गुण, संयम तथा ज्ञान की प्राप्ति होती है।' बहुत विस्तार से हंसावतार लेकर सनकादि को जिस तत्त्वज्ञान का उपदेश किया था वह सुनाया। फिर साधन भक्ति का वर्णन करते हुए ध्यानविधि बतलायी। ध्यान के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली सिद्धियों का वर्णन करके कह दिया- 'सब सिद्धियाँ विघ्नरूपा ही हैं अतः इनसे मेरे आश्रित मोहित नहीं होते।' उद्धव के प्रश्न करने पर मधुसूदन ने अपनी विभूतियों का वर्णन किया। वर्णाश्रम धर्म तथा सामान्य धर्म का वर्णन किया। इसी प्रकार उद्धव के प्रश्न के उत्तर में यमनियम, शम-दम तितिक्षादि की परिभाषा बतलायी। उद्धव को भगवान ने अधिकारी बतलाते हुए कहा- 'मनुष्य के उद्धार के तीन ही साधन हैं- ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग। चौथा कोई साधन नहीं है।' द्रव्य, देश-काल की शुद्धि-अशुद्धि आदि को सकारण भगवान ने समझाया। उद्धव के पूछने पर तत्त्वों की प्रसंख्यान पद्धति बतलायी। पुरुष-प्रकृति का स्वरूप बतलाकर जीव की देहान्तर, लोकान्तर गति का निरूपण किया। तितिक्षा, समदर्शिता के उदाहरण में भिक्षु का आख्यान सुनाया और भिक्षुगीता का उपदेश किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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