श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
84. उद्धव को उपदेश
‘आप योगेश्वर योगमूर्ति हैं। समस्त योगों के आद्योपदेष्टा जगद्गुरु हैं। आपने मुझे निःश्रेयस की सिद्धि के लिए परम त्याग का उपाय बतलाया किन्तु मैं समझता हूँ कि जो आपके भक्त नहीं हैं उन सकाम विषयाभिलाषी लोगों के लिए यह त्याग दुष्कर है।’ उद्धव की यह बात तो उचित है और उनमें अब आचार्य के लिए उपयुक्त कारूण्य का उदय हो चुका है। अतः वे समस्त मनःस्थिति ध्यान में रखकर ही पूछ रहे हैं – ‘मैं-मेरा इस प्रगाढ़ मति से अत्यन्त मोहित, आपकी माया से निर्मित जगत में संसक्त में जैसे सरलता से इस तत्त्वज्ञान को अपना सकूं, वैसा उपाय आप मुझे निर्दिष्ट करें। अपने इस सेवक पर अनुग्रह करके आप वह सरल मार्ग दिखलावें क्योंकि सत्य का स्वरूप समझाने वाला वक्ता आप के समान मुझे देवताओं में कोई दीखता है। ब्रह्मादि सब तो आपकी माया से मोहित बाह्य पदार्थो में ही अर्थ सत्य बुद्धि रखने वाले हैं। आप ही एकमात्र निर्दोष, अनन्त, अपार, सर्वज्ञ, सर्वेश्वर, अकुण्ठधी हैं और नर के लिए नित्य सखा नारायण है। मैं इस संसार ताप से संतप्त होकर इससे निर्विष्ण बुद्धि आपके शरणापन्न हूँ।’ संसार में जब तक सुख बुद्धि हैं, जब तक यहाँ कुछ भी पाना है, तब तक तो तत्त्वज्ञान की बात ही अनाधिकार चर्चा है। जब समस्त विष के समान संतप्त करने वाले हो जाते है, जब यहाँ से वैराग्य हो नहीं, निर्वेद अर्थात सहज अरुचि, इनको जानना भी कष्टकर लगने वाला हो जाता है तब जिज्ञासु गुरुपसक्ति का ठीक अधिकार होता है। उद्धव ऐसे उत्कृष्ट अधिकारी हैं और उन्होंने अपने उपदेष्टा की शरण ग्रहण की। विधिवत गुरुपसत्ति सम्पन्न हो गयी। श्रीकृष्णचन्द्र ने अब विस्तार से उपदेश प्रारम्भ किया -‘पुरुष को अपने विवेक के प्रकाश में ही चलना पड़ता है। अपने विवेक से ही अपना उद्धार करना पड़ता है। जो व्यक्ति स्वयं सब अनुभव करना चाहता है, वह अज्ञ है। ऐसा संभव नहीं। विलक्षण पुरुष दूसरों को देखकर उनके सुख: दुख सफलता-असफलता से शिक्षा लेते है। इस प्रकार प्रत्यक्ष तथा अनुमान के द्वारा अपने कल्याण का मार्ग निर्णीत कर लेता है। इस संबंध में महाराज यदु तथा अवधूत का सम्वाद श्रीद्वारिकाधीश ने सुनाया महाराज यदु को अवधूत[1] मिल गये अकस्मत्। उन्हें तरुण, बलवान बुद्धिमान होते भी निरूद्योग, निश्चिन्त, निद्र्वन्द्व देखकर यदु ने उनसे इस शन्ति, संतोष तथा निर्वाध मस्ती का कारण पूछा तो अवधूत ने बतलाया कि उन्होंने अपने चौबीस गुरु बनाये हैं और प्रत्येक गुरु से कुछ-न-कुछ विशेष ज्ञान प्राप्त किया है। पृथ्वी से सहनशीलता, वायु से असंसक्ति, आकाश से सर्वात्मकत्व, जल से सबको तृष्टि देना, अग्नि से तेजस्विता एवं नभ से अलिप्तता, चन्द्र से आह्लाद, सूर्य से सर्व प्रकाशतत्त्व, कबूतर से कुटुम्बासक्ति का दुःख, अजगर से संतोष, समुद्र से एकरस रहना, पतंग से रूपासक्ति से विनाश, मधुमक्खी से संग्रह में दुःख, गज से स्त्रियाशक्ति से बन्धन, हरिण से कर्णेन्द्रिय तथा मीन से रसनेन्द्रिय के विषयों में आसक्ति से मृत्यु, पिंगला से निराशा का सुख, चील से त्याग में निश्चितन्ता, बालक से सरलता, कुमारी कन्या से अकेले विचरण का आनन्द, बाण बनाने वाले से एकाग्रता, सर्प से अनिकेतता, मकड़ी से सृष्टिनिर्माण - प्रलय का ज्ञान, रेशम के कीट से मोह का बन्धनत्व, इस प्रकार किससे क्या कैसे उन्होंने सीखा है, यह विस्तार से यदु को बतलाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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