श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
81. देवर्षि का वसुदेव जी को उपदेश
'मन को बहिर्मुख होने से रोककर उन श्रीचक्रपाणि के मंगलमय रूप, चरित, गुण एवं नाम के चिन्तन, ध्यान, गायन, जप, कीर्तन में लगावे। इस प्रकार श्रीहरि के नाम, गुण, लीला के चिन्तन-गायन में लगाने से उन परम प्रभु में प्रीति का उदय होता है और तब संपूर्ण विश्व में सर्वत्र उनको ही देखना संभव हो जाता है। इस सर्वत्र भगवद दृष्टि से देहाभिमान, व्यक्तित्व का बंधन उच्छिन्न हो जाता है। भगवद्भक्ति, विषयों से वैराग्य और भगवत्तत्त्व का ज्ञान- ये तीनों एक साथ वैसे ही होते हैं जैसे भोजन के प्रत्येक ग्रास के साथ क्षुधा-निवृत्ति, मनःतुष्टि तथा काया की पुष्टि होती जाती है।' महाराज निमि ने जिज्ञासा की- 'इस भागवत धर्म का सम्यक आचरण करने वाले महापुरुषों का लक्षण क्या है? उन्हें कैसे पहिचाना जाय? स्पष्ट है कि वेश-साधुता नहीं है। कण्ठी, तिलक या वस्त्र के रंग से भगवद्भक्त या संन्यासी नहीं होते, न किसी को बना सकते। व्यक्ति संन्यासी या भगवद्भक्त होता है और वह होता है अपने आचरण, अपने चित्त की स्थिति के कारण। उस स्थिति की बात ही निमि ने पूछी थी। महायोगीश्वर नौ भाइयों में जो सदा साथ ही रहते हैं, दूसरे भाई हरि ने उत्तर दिया- 'उत्तम भागवत वह है जो समस्त प्राणि-पदार्थो का भगवदरूप, भगवान ही इन रूपों में हैं- ऐसा देखता है। जो ईश्वर में प्रेम-भक्ति रखता है, भगवदाश्रित जनों से मैत्री रखता है, अज्ञानी जनों के प्रति कृपालु रहता है और भगवान तथा भक्तों के द्वेषियों की, पापियों की उपेक्षा कर देता है, वह मध्यम है और वह सामान्य है जो केवल श्रद्धापूर्वक श्रीमूर्ति की पूजा तो करता है किन्तु भक्त भागवत संतों में, सत्पुरुषों में जिसकी प्रीति नहीं है।' 'उत्तम भगवद्भक्तों में भी कई प्रकार के लोग होते हैं। एक वे हैं जो इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण करते हुए भी न उन्हें पाकर हर्षित होते, न अनभीष्ट मिलने से द्वेष करते। वे यह सब भगवान की माया, उनकी लीला ही देखते हैं। 'शरीर, इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि किसी के द्वारा भी जो जन्म-मृत्यु, भूख-प्यास आदि किसी संसारिक धर्म से मोहित, विचलित नहीं होते, श्रीहरि के स्मरण में सदा लगे रहते हैं, कोई बाधा, दुःख अभाव उनकी स्मृति को बाधित नहीं कर पाती, वे उत्तम भागवत हैं।' 'वे उत्तम भागवत हैं जिनके चित्त में कामना तथा कर्म का बीज ही नहीं उगता। उनका चित्त सदा वायुदेव में ही बसता है।' 'उत्तम-अधम कुल, जाति, वर्ण, आश्रम, विद्या, रूप, गुण आदि शरीर तथा बुद्धि की विशेषताओं में जिनका अहंकार कभी नहीं होता, वे भागवतोत्तम हैं।' त्रिलोकी का वैभव मिलता हो तो उसके लिए भी आधे क्षण को जिनका चित्त भगवच्चरणारविंद के स्मरण से विचलित नहीं होता, वे भागवतोत्तम हैं। 'सर्वश्रेष्ठ भागवत वे हैं जिनके हृदय में प्रेम की रज्जु से उन सर्वेश्वर श्रीहरि के चरण ऐसे बँधे हैं कि वे चाहें तो भी उनके हृदय से कहीं एक पद भी जा नहीं सकते। वे प्रेमैक प्राण धन्य हैं।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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