श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
80. गोपी-तालाब
इस उक्ति में कहीं अन्तर्मनन अपने प्रेम का गर्व है, कहीं अपने अतिशय प्रिय होने का अहङ्कार है, इसको महारानी ने नहीं समझा था और श्रीकीर्तिकुमारी की तो दृष्टि ही किसी के दोष पर नहीं जाती; किन्तु उन श्रीव्रजयुवराज्ञी के जो आराध्य हैं वे परम लीलामय हैं। वे न अपनों में गर्व की गन्ध सह पाते, न अपने भक्तों की संकेत से भी की गयी अवमानना उन्हें सह्य है। श्रीवृषभानु-नन्दिनी ने सहज भाव से कहा- 'महारानी! आप उनकी पट्टमहिषी हो। मुझ ग्राम्या गोप-कन्या की आपके सौभाग्य से क्या तुलना? किन्तु वियोग के बिना परम-प्रेम के परिपाक का रसास्वादन संभव नहीं है। एक दिन की अवधि अत्यंत अल्प होती है। वे कृपा करें तो एक वर्ष के लिए आपको इस महाभाव की पूर्ति का वरदान मिल सकता है।' श्रीकृष्णचन्द्र की उन अभिन्ना आह्लादिनी महाशक्ति का संकल्प सत्य हुआ, महर्षि दुर्वासा के माध्यम से उनके शाप के, रूप में और देवी रुक्मिणी को पति-वियोग स्वेच्छा से स्वीकार करके द्वारिका से बाहर तपस्विनी जीवन अपनाना पड़ा। महारानी रुक्मिणी ने महर्षि दुर्वासा के शाप को स्वेच्छा से स्वीकार किया और जब नगर से बाहर निर्वासित जीवन व्यतीत करने चली गयीं तो श्रीकृष्णचन्द्र ने श्रीरासेश्वरी से एक दिन एकान्त में कहा- 'अब व्रजधरा धन्य होनी चाहिए। व्रज के लोगों के उपयुक्त यह भूमि नहीं है। प्रेम का पूर्ण परिपाक वृन्दावन की दिव्यभूमि को छोड़कर सम्भव नहीं। व्रज-भूमि त्यागकर श्रीव्रजराजकुमार कहीं एक पद भी नहीं जाते हैं। श्रीवृषभानु-नन्दिनी ने भी यह लोकदृष्टि में ही लीला की थी। वे और उनसे नित्य अभिन्ना उनकी अङ्गभूता सखियाँ वृजभूमि से बाहर कहाँ जाती हैं। श्रीवृषभानु बाबा के बराबर संदेश आ रहे थे कि उनकी लली का उसको माता देखना चाहती हैं। इस संदेश का समुचित उत्तर संतोषदायक उत्तर उन्हें मिलना था। उनकी प्राणाधिक प्रिय पुत्री अपनी सखियों के साथ गोपकुमारों के संरक्षण में उनके सदन आयी और आये उसके साथ श्रीबलराम, श्रीकृष्ण यह व्रज के लोगों की दृष्टि में हुई लीला है।' लोक दृष्टि में हुई लीला भी एक है और वह इससे सर्वथा भिन्न है। श्रीकृष्णचन्द्र की वाणी का गूढ़ रहस्य श्रीराधा ने ग्रहण किया, उन्होंने समझ लिया कि धन्य धरा के त्याग का समय अब उपस्थित हो गया है। गोप और गोपियों की जो सन्तति धरा पर रहने योग्य थी उसे श्रीद्वारिकाधीश ने भूमि, ग्राम आदि प्रदान किये। उनके वंश धर अब भी आनर्तदश[1] में बसे हुए है। वे पराक्रमी हैं, सरल हैं। श्रीराधा तथा उनकी सहेलियों ने अपने अंगराग विसर्जन करने वाले सरोवर में क्रीड़ा-पूर्वक प्रवेश किया और सहसा उनका तिरोभाव हो गया। कहा जाता है कि गोपी-तालाब में उनके अंशोही गोमती चक्र शिलाओं का प्रादुर्भाव हुआ। उनके समन्वित ही शालिग्राम का अर्चन अब भी संपूर्ण माना जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सौराष्ट्र-काठियावाड़
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